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अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार-६५

साहित्य और साहित्यकारों के प्रति आदर

यशवंतरावजी सुसंस्कृत मनुष्य थे । उन्हें साहित्य के बारे में अधिक आकर्षण था । ग. दि. माडगूलकर, रणजित देसाईजी, कवि यशवंतजी, पु. ल. देशपांडेजी, ना. धों. महानोरजी, व्यंकटेश माडगूलकरजी, श्रीनिवास कुलकर्णीजी आदि साहित्यकारों के सहवास के लिए वे लालायित हो जाते थे । समाज के मानस में जो होता है वह साहित्य में अभिव्यक्त होता है, या सामाजिक, राजनैतिक और साहित्यिक मूल्यों का एक दूसरे से अलगाव नहीं किया जाता, ऐसे उनके विचार साहित्यिक महफिल में साहित्यकार सुनते थे । सभी साहित्यिकों को - फिर वह नये रूप से आगे आया हुआ लक्ष्मण माने हो - वे उससे प्रेम से बर्ताव करते थे । स्व. भाऊसाहेबजी खांडेकर को उनके हृदय में मर्मस्थान था । भाऊसाहेब के 'पांढरे ढग' और 'दोन ध्रुव' इन दोनों उपन्यासों का उनपर बहुत प्रभाव पडा था । गरीबों के बारे में दया अथवा करुणा ने एक आदर्शवादी जीवन जीने की प्रेरणा इन दोनों उपन्यासों ने उन्हें दी । यशवंतरावजी के कराड में साहित्य संमेलन हुआ था ।  यशवंतरावजी भाऊसाहेब खांडेकरजी को धीरे-धीरे साहित्य संमेलन में ले आये थे । यह सब देखने के बाद मुझे ऐसा लगता है कि साहबजी की मूल प्रवृत्ती साहित्यिक की है ।  पर बहुत लोगों की समझ में यह बात नहीं आयी । उनका साहित्य और साहित्यिकों पर प्रेम यह एक राजनीति का भाग है ऐसा ये लोग मानते हैं । उससे साहबजी को बडे क्लेष हुए । 'शिवनेरीच्या नौबती', 'सह्याद्रिचे वारे', 'ॠणानुबंध' आदि उनके पुस्तकों में उनके साहित्यिक गुणों की प्रचीति आती है । अन्त में उनका 'कृष्णाकाठ' प्रसिद्ध हुआ । और फिर सभी को साहित्यिक यशवंतरावजी का परिचय हुआ । लेकिन उस समय बहुत देर हुई थी । कराड के साहित्य संमेलन में उन्होंने कहा था - 'तुम साहित्यिक लोग जो सेवा कलम से करते हो वह हम राजनैतिक लोग वाणी (वाचा) से करते है ।'

सत्ता के राजनैतिक जंगल में रहकर उन्होंने सुसंस्कृतता छोडी नहीं । अनेक साहित्यिक उनके मित्र थे । उन्हें ग्रंथों का लोभ था । शब्दों पर उनका प्रेम था । वे अपने भाषण में बहुत बार समुचित शब्दों का प्रयोग करते थे, यह सुनकर प्रथितयश साहित्यिक भी खुश हो जाते थे । उत्तम शब्दरचना को रसिकता से वे दाद देते थे ।

मराठी में मैने जो उत्तम वक्ता सुने हैं उन में यशवंतरावजी का बहुत उपर का क्रम लगता है । उनका बोलना बहुत फूर्तीला रहता था । इस गुण के कारण वे सभा जीत लेते थे । वे हजारो लोगों को मंत्रमुग्ध करते थे । समुचित भाषा, मृदु आवाज और समुचित शब्दरचना के कारण उनका भाषण परिणामपूर्ण होता था ।

सत्ता स्थान में रहते हुए साहित्य और संगीत का प्रेम उन्होंने कायम रखा था । पठन की धून कायम रखी थी । चव्हाणजी के निवासस्थान में सभी विचारों के साहित्यिक, संगीतकार और नाटककार इकठ्ठा हो जाते थे । दिल्ली देखने के लिए आनेवाले, हरिद्वार-ॠषिकेश यात्रा को जानेवाले महाराष्ट्रीय लोग चव्हाणजी के घर जाकर उनका अतिथिसत्कार लेते थे । उनके घर में कभी भीमसेन जोशीजी की संगीत की महफिल होती थी, तो कभी गझल-कव्वाली का कार्यक्रम होता था । राजनीति की व्यस्तता में ये सब करते थे, यह देखकर अनेक लोगों को आश्चर्य लगता था । उनके साथही वे विपक्षी लोगों का प्रेम से स्वागत करते थे । वे विपक्षी लोगोंद्वारा की गयी आलोचना का मन में गुस्सा नहीं रखते थे । इस बारे में यशवंतरावजी की कुशलता विलक्षण थी । यह नेता, यह राजनीतिज्ञ, यह मंत्री, यह मनुष्य अलग था, न्यायी था । लेकिन काल कठोर होता है । उसके सामने किसी की कुछ नहीं चलती । कालाय तस्मै नमः । यशवंतरावजी अधिक दिन तक जिन्दा रहते तो....