चव्हाणजी की जीत
केंद्रीय वित्तमंत्री श्री. चिंतामणरावजी देशमुख ने संयुक्त महाराष्ट्र के प्रश्न पर इस्तीफा दिया । और उनका इस्तीफा २६ जुलै १९५६ को स्वीकृत हुआ । उसके बाद पंद्रह दिनों के भीतर संसद ने द्विभाषिक बम्बई राज्य की कल्पना का समर्थन किया । एक मत से चुनाव हुआ तो नये राज्य के काँग्रेस विधिमंडल पक्ष का नेतृत्व करने के लिए मोरारजी देसाई तैयार थे । परंतु भाऊसाहेब हिरे ने मोरारजी भाई के विरुद्ध नेतृत्व पद का चुनाव लडने की घोषणा की तब मोरारजी पीछे हट गये । १६ अक्तूबर १९५६ को हिरेजी और चव्हाणजी में चुनाव हुआ । इस चुनाव में यशवंतरावजी की जीत हुई ।
चव्हाणजीने मुख्यमंत्री के रूप में बम्बई राज्य के सूत्र अपने हाथ में लिये । जाहिर सभा लेना और भाषण करना काँग्रेस के लोगों को असंभव और कठिन हो रहा था । पत्थरों की और जूतों की बौछार व्यासपीठपर होती थी और नेताओं को हमेशा पुलिस की रक्षा लेनी पडती थी । काले झंडों से नेताओंका स्वागत होता था । लोग पुलिसों का घेरा तोडकर नेताओं की मोटर गाडियों को घेरा डालते थे और संयुक्त महाराष्ट्र की घोषणा देते थे । संतप्त जमाव को काबू में रखने का कष्टप्रद काम पुलिसों को करना पडता था ।
मार्च १९५७ में दूसरा सार्वत्रिक चुनाव हुआ । यशवंतरावजी १७०० मतों से विजयी हुए । इस चुनाव में काकासाहेबजी गाडगील, हरिभाऊजी पाटसकर, पी.के. सावंतजी और डी.के. कुंटेजी जैसे अनेक नेता चुनाव में पराजित हो गये । इस चुनाव के बाद केवल छः महिनों में महाराष्ट्र प्रदेश काँग्रेस समिति के नेताओं को संरक्षणात्मक भूमिका लेनी पडी । यशवंतरावजी महाराष्ट्र काँग्रेस में से पुराने नेताओं को बाजू हटाकर अपने समर्थकों को ले आये । महाराष्ट्र काँग्रेस को बलवान बनाने के लिए उन्होंने विचारपूर्वक योजना बनायी । ३० नवंबर १९५७ को प्रतापगडपर छत्रपती शिवाजी महाराज के पुतले का उद्घाटन करने के लिए पंडित जवाहरलाल नेहरूजी को बुलाया । महाराष्ट्र काँग्रेस समिति के नेताओं को प्रधानमंत्री के इस भेट का फायदा लेकर ग्रामीण विभाग में भी बहुत लोगों का हमे समर्थन मिलता है यह दिखाना था । यशवंतरावजी इस कार्यक्रम में यशस्वी हुए । उन्होंने पंडित नेहरूजी को यह भी दिखाया कि पश्चिम महाराष्ट्र में काँग्रेस जिन्दा है ।
फिर भी उप-चुनाव में काँग्रेस हार गयी । बम्बई और मराठवाडा में हुए पराभव से नेताओं को आश्चर्य का धक्का लगा । इसलिए स.का. पाटीलजी ने प्रधानमंत्री को पूर्वनिर्णय के पुनःविचार की माँग किये बिना महाराष्ट्र में लोगों के मन जीते जा नहीं सकेंगे यह उन्होंने पहचाना । २३ अगस्त १९५८ के औरंगाबाद में हुई सभा में भाषण करते हुए कहा - 'संस्था का पूर्वनिर्णय बदलने के लिए सदस्यों के मन शांतिपूर्ण तरीके से मोड दिये जाय तो मेरी कोई बाधा नहीं होगी' अक्तूबर १९५८ में नेहरूजी ने हैदराबाद में अपनी साथियों के साथ चर्चा में बम्बई राज्य के विभाजन का विषय निकाला था । नेहरूजी के चरित्रकार एम. गोपालजी के मतानुसार - 'इस प्रश्न का सर्वांगीण विचार करने के लिए प्रधानमंत्रीजी ने निजी बैठक बुलायी थी ।' बैठक में पंतजी, मोरारजी और यशवंतरावजी चव्हाण उपस्थित थे । इस संबंध में निर्णय लेनेवालों का दृष्टिकोन जानकर चव्हाणजी ने उन्हें बताया कि द्विभाषिक राज्य चलाना दिन-ब-दिन कठिन हो रहा है । बम्बई मंत्रीमंडल में दो गुट पडे थे । यह बात बहुत लोग जानते थे और यशवंतरावजी बडे प्रयत्न से उन्हें सँभाल रहे थे । इस प्रश्न का अभ्यास करने के लिए काँग्रेस की नयी अध्यक्षा श्रीमती इंदिरा गांधीजी की मदद करने के लिए नौ सदस्यों की समिति नियुक्त की थी । पंतजी इस समिति के अध्यक्ष थे । प्रादेशिक लेन-देन की बहुत बाधाएँ निर्माण नहीं हुई । क्योंकि डांग जिला और ठाणे तथा पश्चिम खानदेश में अनेक गाँव गुजरात को देने की बात यशवंतरावजीने कबूल की थी । विभाजन के समय आर्थिक प्रश्न पर वाद निर्माण हुआ था । इसलिए गुजरात को दस वर्षोंतक अर्थसहाय्य देने के लिए यशवंतरावजी तैयार हुए । १ मई १९६० को बम्बईसह नया संयुक्त महाराष्ट्र राज्य अस्तित्व में आया । यशवंतरावजी ने बातचीत से अंतिम ध्येय प्राप्त किया । फिर भी उन्होंने जनता को श्रेय दिया । इस संबंध में विरोधी पक्षने जो आव्हान दिया था राज्यकर्ता पक्ष ने भी इस आव्हान को प्रतिसाद दिया । इसलिए अंतिम ध्येय प्राप्त हुआ ।