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अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार-५२

विद्यापीठ की स्थापना

मराठवाडा विद्यापीठ के स्थापना के समय उन्होंने लिया हुआ निर्णय भी उनके अलग कारोबारविषयक नीति की साक्ष देता है । द्विभाषिक राज्य में मराठवाडा हाल ही में शामील हुआ था । इससे पहले अनेक वर्षं मराठवाडा हैदराबाद संस्थान के राज्य में था ।  इसलिए मराठवाडा में शिक्षा की प्रगति लगभग सौ वर्षं नहीं हो सकी थी । मराठवाडा के शैक्षणिक प्रगति को सहाय्य करना जरूर था । यशवंतरावजी का यही विचार था कि मराठवाडा को स्वतंत्र विद्यापीठ देना चाहिए । उस समय विद्यापीठ के लिए आवश्यक महाविद्यालय वहाँ नहीं थे । पहले महाविद्यालयों की संख्या बढनी चाहिए और फिर विद्यापीठ अस्तित्व में आना चाहिए, ऐसा विचार कुछ शिक्षाविषयक तज्ज्ञोंने प्रस्तुत किया । इस पद्धति से पुणे विद्यापीठ, नागपूर विद्यापीठ और अन्य कुछ विद्यापीठों की स्थापना हुई थी । परंतु मराठवाडा के संबंध में हम इसी मार्ग से गये तो उसकी शिक्षा की प्रगति में देरी होगी, ऐसा डर यशवंतरावजी के मन में था । इसलिए उन्होंने वहाँ पहले विद्यापीठ और उसके बाद महाविद्यालय स्थापना का कार्यक्रम स्वीकार करने का निर्णय लिया । उसके अनुसार उन्होंने वहाँ १९५८ में विद्यापीठ स्थापन करने का निर्णय किया । अगले दो-तीन वर्षों में अनेक महाविद्यालय शुरू हुए । तब मराठवाडा विद्यापीठ जैसे अनेक महाविद्यालय शुरू हुए । अब उनकी संख्या साठ थी । विद्यापीठ स्थापन करते समय यशवंतरावजी नियम और पुराने मार्ग पर से चले जाते तो मराठवाडा की शैक्षणिक प्रगति होने के लिए अनेक वर्षं लग जाते । सैंकडों विद्यार्थी इस विद्यापीठ से उपाधियाँ लेकर बाहर आ रहे हैं, इसका संपूर्ण यश यशवंतरावजी चव्हाण के निर्णय का है ।

यशवंतरावजी ललित कला के भोक्ता थे । मंत्रालय, संसद गृह, काँग्रेस पक्ष कार्यालय में काम करते हुए उन्होंने अपने कलाप्रेम की ओर अनदेखी नहीं की । उनका पठन बहुत था । शास्त्रोक्त संगीत और नाटकों के वे रसिक थे । महाराष्ट्र में संगीतकार, नाटककार और सिनेमा कलाकार, लेखक और कवि दिल्ली में आने पर यशवंतरावजी की भेट लिए बिना नहीं जाते थे और यशवंतरावजी भी उनका खुले दिल से स्वागत करते थे ।