• 001_Krishnakath.jpg
  • 002_Vividhangi-Vyaktimatva-1.jpg
  • 003_Shabdhanche.jpg
  • 004_Mazya-Rajkiya-Athwani.jpg
  • 005_Saheb_14.jpg
  • 006_Yashodhan_76.jpg
  • 007_Yashodharshan.jpg
  • 008_Yashwant-Chintanik.jpg
  • 009_Kartrutva.jpg
  • 010_Maulik-Vichar.jpg
  • 011_YCHAVAN-N-D-MAHANOR.jpg
  • 012_Sahyadricheware.jpg
  • 013_Runanubandh.jpg
  • 014_Bhumika.jpg
  • 016_YCHAVAN-SAHITYA-SUCHI.jpg
  • 017_Maharashtratil-Dushkal.jpg
  • Debacle-to-Revival-1.jpg
  • INDIA's-FOREIGN-POLICY.jpg
  • ORAL-HISTORY-TRANSCRIPT.jpg
  • sing_3.jpg

अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार-५

मूल गाँव

यशवंतराव चव्हाण का मूल गाँव ढवलेश्वर है । वह गाँव खानापूर तहसील में है । यह गाँव बहुत छोटा है । उनकी माँ ने उनसे यह वस्तुस्थिती बतायी हे । ढवलेश्वर में चव्हाण परिवार कुशल था । यह चव्हाण परिवार किसी साहूकार को दूसरे एक ॠण के लिए जमानत रहा । वह साहूकार कर्जदार की ओर से ठगा गया । इसलिए जमानतवाले चव्हाण परिवार का जमीन जुमला साहूकारने अपने कब्जे में लिया । इसलिए ढवलेश्वर में चव्हाण परिवार का कुछ नहीं रहा । ढवलेश्वर से विटा नजदीक था । इसलिए चव्हाण परिवार ने पहले वहाँ निवास किया । यह घटना शायद यशवंतरावजी के परदादा की पहले के होगी । विटा आने के बाद कम उपजाऊ थोडी जमीन उन्होंने खरीद ली और उस पर अपना उदर निर्वाह चलाया था और ऐसी हालत में वे विटा में रहते थें ।

रामचंद्र चव्हाण यशवंतरावजी के चाचा थे । वे चौथी कक्षा तक पढे थे । उन्होंने खेती करना छोड दिया और सरकारी नौकरी करने लगे ।  

आगे कुछ दिनों के बाद खेती के उत्पादन पर परिवार का खर्च नहीं चल सकता था ।  इसलिए उन्होंने अपने छोटे भाई के लिए अर्थात यशवंतरावजी के पिताजी के लिए प्रयत्‍न किया और उन्हें नाजिर की नौकरी मिलवा दी । उनकी नियुक्ति विटा, दहिवडी, कराड ऐसे स्थानोंपर अदल-बदलकर होती रहती थी । जब यशवंतरावजी का जन्म हुआ था, उस समय उनकी नियुक्ति कराड में हुई थी । वे कराड में बहुत वर्ष रहे । इस प्रकार दोनों भाई भी नाजिर के रूप में काम कर रहे थे ।

परिवार की पार्श्वभूमि ध्यान में आये इसलिए यशवंतरावजी ने यह हकीकत दर्ज कर ली है । इससे कल्पना आती है कि यह साधारण छोटे किसान का घर था, चाहे वह दादा का घर हो या पिता का घर हो । साधारण किसान के जीवन के हिस्से में आनेवाली जो बातें होती हैं, वही सब बातें यशवंतरावजी के परिवार के हिस्से में आयी थी । गांव छोडकर नौकरी के लिए भटकना, बीच-बीच में खेती की ओर ध्यान देने के लिए गाँव की ओर जाना, खेती का उत्पादन हाथ में आता कि नहीं, यह देखने के लिए जाना, यह उनके पिता का तरीका था ।

यशवंतरावजी का बचपन यह अन्य लाखों घरों में होनेवाले बच्चों की तरह बीत गया ।  देहात में रहनेवाले छोटे और गरीब किसानों की संख्या उस समय चारोंओर बहुत थी ।  इसी प्रकार के एक परिवार में यशवंतरावजी का जन्म हुआ था, पले-पोसे थे । इसलिए यशवंतरावजी के जीवन में अन्यों की अपेक्षा बहुत कुछ था, ऐसा नहीं । सर्वसाधारणतः अडचने और गरीबी को ही जीवन ऐसा नाम था ऐसा कहा जाय तो चलेगा । ये सब कहने का हेतु इतना ही है कि वे भोगी हुई गरीबी का अतिरंजित वर्णन करना नहीं चाहते । ग्रामीण जीवन में उस समय का यह सर्वसाधारण अनुभव था ।

अच्छी खेतीवाले दस-पाँच परिवार और व्यापार, साहूकारी करनेवाले दस-पाँच परिवार छोड दिये तो शेष सभी लोगों के जीवन का और रहन-सहन का स्तर एक ही था । यहाँ तेली, कंबल बुननेवाले, कोई गडरिया रहते थे । लेकिन दिनभर कष्ट करना और अपना जीवन बिताना, यही चित्र यशवंतरावजी की कल्पना के अनुसार उस समय सभी गाँवों में था, ऐसा कहा जाय तो अत्युक्ति नहीं होगी ।

यशवंतरावजी के बचपन के अनुभव की यह पार्श्वभूमि है । इसलिए यशवंतरावजी को ऐसे स्तर में और अहाते में होनेवाले बाल-बच्चे-मनुष्य के बारे में एक प्रकार का कुतूहल और आत्मीयता है । फिर वे किसी भी जाति के क्यों न हो, वे और यशवंतरावजी एक दूसरे में घुलमिल जाते । यह अनुभव उन्हें अपने ननिहाल में आया । और यही अनुभव जब वे कराड में शिक्षा के लिए स्थिर हुए, वहाँ ही आया । ननिहाल के घर के पडोस में रहनेवाले छोटी-छोटी जमाति में रहनेवाले लोगों के साथ उनका सबंध था । कंबल बुननेवाले, गडरिया, मुसलमान, पिछडी जाति का पडोस यह उनके जीवन की विशेष धरोहर है, ऐसा वे हमेशा मानते आ रहे हैं । इसलिए उनके घर, उनकी रहन-सहन, उनकी चालचलन ये अपने आप उन्हें अपनी ही लगती थीं । उनकी कल्पना के अनुसार उनका उस समय का अनुभव और उस में से निर्माण हुई भावनात्मक स्थिति यह उनके अगले जीवन में उपयुक्त हुई ।