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अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार-४५

मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी यशवंतरावजी ने किसान, काम करनेवाले लोगों के लिए  ली । 'मैं जिम्मेदारी के काम में फँस गया, गलती की तो किसान फँस जायेगा और मजदूर भी फँस जायेगा ।' ऐसे उनके विचार थे । आज राष्ट्रपिता गांधीजी होते तो वे यशवंतरावजी की ओर देखकर प्रशंसा करते और कहते, 'मेरी स्वातंत्र्य लडाई में होनेवाला एक तरुण किसान सैनिक महाराष्ट्र राज्य का मुख्यमंत्री पद विभूषित करता है और किसानों की हिमायत लेकर उनके कल्याण की प्रतिज्ञा करता है ।'

गांधीजी की ईश्वरनिष्ठा गहरी थी । यशवंतरावजी भी अन्त में ईश्वरी इच्छा पर निर्भर रहकर निश्चिंत होते थे । जब जब एकाध गुत्थमगुत्थी का, अत्यंत कठिन समस्या का प्रश्न निर्माण होता है, तब क्या करना चाहिए और क्या न करना चाहिए, ऐसे समय वे कहते है 'ठीक है, मुझे ईश्वर जो सूचित करेगा अथवा जो प्रेरणा देगा वैसा मैं निर्णय लूँगा ।'

विदर्भवासियों का यशवंतरावजी पर प्रेम था । उसके अनेक कारण थे । एक तो वर्धा सेवाग्राम में महात्मा गांधी का अनेक वर्षं वास्तव्य था । उस काल में सेवाग्राम भारत की राजनैतिक राजधानी बनी थी । नागपूर विभाग में चार जिलों में रहनेवाली जनता गांधीजी के वास्तव्य से, उनकी विचारप्रणाली से विशेष प्रभावित हुई थी । यशवंतरावजी मुख्यमंत्री हुए इसलिए उन पर विदर्भवासियोंका प्रेम दृढ हुआ । यही नहीं, युग में होकर, गांधीजी की पुकार सुनकर स्वातंत्र्य के यज्ञकुंड में कूद पडनेवाले यशवंतरावजी हम में से एक बहादूर सेनानी थे । इसलिए विदर्भ की जनता का उन पर प्रेम था । राज्य पुनर्रचना नहीं होती तो उनके विषय में अत्यादर का, अपनत्व का भाव विदर्भ की जनता में नहीं हो सकता ।

पश्चिम महाराष्ट्र और विदर्भ का भाग अलग अलग प्रांतों में रहता था । फिर भी राष्ट्रीय आंदोलन की दृष्टि से उन में हमेशा एकात्मता थी । लोकमान्य तिलकजी की मृत्यु के बाद उनके शिष्यों में दो गुट पडे थे । एक गुट गांधीजी का नेतृत्व हृदय से माननेवाला और दूसरा गुट गांधीजी का नेतृत्व न माननेवाला । विदर्भ विभाग में गांधीजी का नेतृत्व माननेवाला बडा गुट था । बहुसंख्य जनता गांधीजी के नेतृत्व की ओर आकर्षित हुई थी ।  महाराष्ट्र में राष्ट्रीय विचार में हुई यह पहली वैचारिक क्रांति थी और वह एक दूसरे की अभिमानी बन गयी । इस क्रांति से पश्चिम महाराष्ट्र और विदर्भ में गांधीप्रेमी जनता एक विचारसूत्र में आयी और दूसरी वैचारिक क्रांति राज्य पुनर्रचना काल में हुई । इस विचार क्रांति का झंडा यशवंतरावजी के हाथ में आया । इस क्रांति की घोषणा दिनांक १ दिसंबर १९५५ में फलटण में हुई । राज्य पुनर्रचना के आंदोलन के काल में यह ऐतिहासिक महत्त्वपूर्ण क्षण था । काँग्रेस की नौका तूफान में फँस गयी थी । काँग्रेस तहस-नहस होने के पथ पर लगी थी । व्यक्तिनिष्ठा श्रेष्ठ कि संस्थानिष्ठा श्रेष्ठ यह प्रश्न सुलझाना था ।  इस समय यशवंतरावजी निर्भयता से सामने आये । १ दिसंबर १९५५ में उन्होंने फलटण में घोषणा की कि - 'बम्बई राज्य रचना के बारे में काँग्रेस कार्यकारिणी जो अंतिम निर्णय लेगी, वह निर्णय मैं शिरोधार्य मानूँगा । संयुक्त महाराष्ट्र और पंडित नेहरूजी ऐसी समस्या मेरे सामने आयी तो मैं पंडित नेहरूजी के प्रति निष्ठा रखूँगा । 'इस में काँग्रेस सुरक्षित रहेगी यही हेतु था । यशवंतरावजी ने काँग्रेस जनों को प्रसंगोचित मार्गदर्शन किया और उन्होंने महाराष्ट्र का 'पानिपत' नहीं होने दिया ।

इस निर्णय से उनके विषय में जनता में बहुत क्षोभ निर्माण हुआ । उन पर गालियों की बौछार हुई । उनका जगह-जगह पर उपहास, अपमान होने लगा । उन्हें राजकीय जीवन से निर्वासित करने के चारों ओर से प्रयत्‍न शुरू हुए थे । उन्होंने ये सब शांति से और धैर्य से सहन किया । अन्त में वे इस अग्निदिव्य में से पार हो गये और महाराष्ट्र काँग्रेस को संजीवन प्राप्‍त कर दिया । कन्नमवारजी और उनके साथी उस समय विदर्भ के पुरस्कर्ता थे । फिर भी यशवंतरावजी के इस पुरुषार्थ से और बहादूरी से वे प्रभावित हुए और उनके नेतृत्व की ओर आकर्षित हुए । क्योंकि वे भी विदर्भ की अपेक्षा काँग्रेस-निष्ठा और भारत-निष्ठा को प्रथम स्थान देनेवाले थे । सारांश यह है कि यशवंतरावजी के समर्थकों की ओर काँग्रेस निष्ठावंतों की पलटन इधर पश्चिम महाराष्ट्र में और उधर विदर्भ में खडी हुई थी ।