शिक्षाविषयक जीवन में ऐसे महान व्यक्तियों का प्रभाव बहुत दिन रहता है और एक दृष्टि से वह अविस्मरणीय भी है । क्योंकि उनकी ओर से मिले हुए संस्कार ये हमेशा के लिए रहनेवाले संस्कार होते हैं ।
यशवंतरावजी के जीवन में कोल्हापूर में शिक्षा के चार वर्षं नीव स्थापित करनेवाले और गतिमान बनानेवाले चार वर्षं थे । इन वर्षों में यशवंतरावजी के जीवन में बहुत कुछ परिवर्तन हुए । यशवंतरावजी १९३८ में बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण हुए ।
मित्रों ने उनसे कहा - 'तुम्हे अध्यापक या संपादक होना है तो कानून के ज्ञानसे तुम्हारे काम में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होगी । कानून की परीक्षा देकर भी तुम आगे जा सकते हो । सीर्फ उपाधिधारी हो तो बीच में ही लटकते रहोगे ।'
यशवंतरावजी ने विचार किया कि उन्हें अन्त में स्वातंत्र्य आंदोलन की राजनीति करनी है । राजनीति और वकिली दोनों हाथ में हाथ मिलाकर चलते हैं, यह भी वे देख रहे थे । और बहुत विचार के बाद कानून का अध्ययन करना चाहिए ऐसा निर्णय उन्होंने लिया ।
१९४० वर्ष समाप्त हो रहा था । यशवंतरावजी की माँ हमेशा उन्हें संदेश भेजती रही कि - 'अब तुम्हारी परीक्षा होने तक कृपा करके कम से कम जेल में मत जाओ । परीक्षा होने के बाद तुम्हे जो कुछ करना है वह जरूर करो ।' उसके बाद यशवंतरावजी ने तीन महिने अभ्यास किया । अप्रैल में परीक्षा हुई और पूना छोडकर वे वापस आये । उन पर जिला काँग्रेस के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी थी । काँग्रेस कार्य करने के लिए वे हमेशा जिले में घूमते फिरते थे । परीक्षा फल जाहिर होनेवाला था । इसलिए घर में कोई जरूरी काम नहीं था ।
एक-दो महिनों के बाद यशवंतरावजी के एल.एल.बी. का परीक्षा फल जाहिर हुआ और वे पूना लॉ कॉलेज से एल.एल.बी. उत्तीर्ण हुए । उनकी माँ को बहुत आनंद हुआ । उन्होंने जो योजना बनायी थी, उसके अनुसार उनकी शिक्षा उन्होंने पूरी की । उनकी राजनीति के कारण उनके तीन-चार वर्षं व्यर्थ बीत गये । थोडीसी बढती उम्र में उन्होंने वकिली का अभ्यास किया था । यह बात भी उन्हें महसूस हुई थी ।
राष्ट्रीय आंदोलन करने के लिए कराड सुविधाजनक है । इसलिए उन्होंने कराड में वकिली शुरू की । लगभग एक वर्ष उन्होंने वकिली की । हर महिने में चार-पाँच सौ रुपये मिलते थे । घर के लोगों को भी मदद होने लगी । वे स्वयं पैसे कमाने लगे, इसका भी उन्हें समाधान था । उनको एक वर्ष की वकिली करने का जो अनुभव आया था, वह अच्छा नहीं था । उनके घर में भीड रहती थी । परंतु यह भीड तहसील में और जिले में कार्यकर्ताओं की थी । अन्य कार्यकर्ताओं को अभिमान था कि - 'हम में से हमारे एक मित्र यशवंतरावजी ने वकिली के पेशे में प्रवेश किया है ।' इसी एक बात का उन्हें आनंद था । इसलिए यशवंतरावजी कोर्ट जाने तक ये लोक उनके पास भीड करके बैठे रहते थे ।