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अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार ९८

साहित्यविषयक भूमिका

यशवंतरावजी ने विविध प्रकारों का मन से अभ्यास किया है । इसके साथ ही उन्होंने जीवनविषयक प्रणाली का भी अभ्यास किया है । कार्ल मार्क्स, फ्राईड, म. गांधी, एम. एन. रॉय आदि प्रवृत्तियों का सूक्ष्म अभ्यास करने से यशवंतरावजी की साहित्यविषयक भूमिका सजग बन गयी थी । आनेवाले नये काल के अनुसार उन्होंने मानवता का पुरस्कार किया । मानवता का कलंक लगने वाली घटनाओं का और वृत्ति-प्रवृत्तियों का साहित्य में से धिक्कार होना चाहिए ऐसे स्वरूप की उन्होंने भूमिका ली थी ।

देश-काल-स्थिति का विचार करते हुए मानवता यही युग का मंत्र होगा ऐसा उन्हें लग रहा था । उन्होंने अपने साहित्य में मानवीय विकास पर अधिक बल दिया है । जीवन में अंतिम सत्य को अर्थात मानवता के मूल्य को जीवन के विकास को अधिक महत्त्व दिया है ।

यशवंतरावजी साहित्य का अर्थ संकुचित वृत्ति से लेते नहीं । साहित्य के संबंध में उनकी दृष्टि विशाल है । जो साहित्य सर्वसामान्य जनता का हित करता है वह साहित्य । इस प्रकार वे साहित्य की सादी पर अर्थवाही व्याख्या करते हैं । केवल शब्दलालित्य अर्थात साहित्य यह साहित्य की व्याख्या लेकर उसके अनुसार चलने का काल समाप्‍त हुआ है, ऐसी सलाह साहित्यिकों को दी है । काल और देश की परिस्थिति की मर्यादा में न रहते हुए साहित्य में सारा जीवन व्याप्‍त रहना चाहिए । साहित्य ने जीवन के अलग अलग क्षेत्रों से अधिक निकट के संबंध प्रस्थापित किये बिना जनजीवन समझ में नहीं आयेगा ।  जनजीवन में से साहित्य निर्माण होता है । तब ही उस साहित्य में से समाजमन का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रतिबिंब साहित्य में पडता है । ऐसे साहित्य का परिणाम फिर से समाजमन पर पडता है ऐसा विचार यशवंतरावजी करते हैं । इतनाही नहीं तो समाजजीवन में घटनेवाले अनेक प्रकार की घटनाओं के संबंध में उत्सुकता और आकर्षण साहित्यिकों को होना चाहिए । समाज-वास्तव का और आसपास के समाज का निरीक्षण करना यह साहित्य की जरूरत है । इसके लिए जीवन से संबंधित ऐसे विविध विषयों का अभ्यास और ज्ञान होना चाहिए । इस प्रकार के अध्ययन से ऐसा मजबूत और जिस में जीवन की शक्ति अधिक हो - उत्तम साहित्य निर्माण होता है । साहित्य में मानव का जीना, उसका अस्तित्व टीके रहना, उसकी सुरक्षितता और सुखसमृद्धि ये सभी बातें साहित्य में अभिव्यक्त होनी चाहिए ऐसी उनकी अपेक्षा थी ।

यशवंतरावजी की साहित्य की ओर देखने की दृष्टि व्यापक थी । साहित्यिक विचारवंतों ने प्रकट किया हुआ साहित्य किसी भी रंग का या किसी भी प्रकार का हो तो चलेगा पर आसपास की परिस्थिति का सूक्ष्म अभ्यास करके समाज में सभी स्तर में निर्माण हुई अस्वस्थता का एहसास होनेवाला समाजचिंतन उस में होना चाहिए । ऐसा साहित्य निर्माण होना चाहिए ऐसा उन्हें लग रहा था । ऐसा साहित्य समाज में परिवर्तन ला सकेगा और समाज को मार्गदर्शन करेगा, समाज की शक्ति बढायेगा, समाजमन व्यापक करेगा और नयी शक्ति और नया सामर्थ्य निर्माण करेगा ऐसा विश्वास उन्हें था । जिस साहित्य में अन्यायविरुद्ध की चीढ, देश की आर्थिक, सामाजिक विषमता का, दारिद्र्य के प्रश्नों का विवरण है, सामान्य मनुष्य का प्रेम है और जिस साहित्य में सामाजिक समता लानेवाले, समाज में सभी घटकों को अवसर देनेवाले लेख हैं वही साहित्य सच्चा साहित्य हो सकता है ऐसे यशवंतरावजी को लगता है ।

मराठी साहित्य यह राष्ट्रीय जीवन से अलिप्‍त नहीं रह सकता यह बात यशवंतरावजी को स्वीकार थी । राष्ट्रीय आंदोलन और सामाजिक आंदोलन इनके प्रतिबिंब मराठी वाङ्‌मय में अवश्य आने चाहिए इस विषय में मतभेद नहीं थे । साहित्यिकों का तत्त्वज्ञान और विचार उनकी सामाजिक परिस्थिति पर तय होता है । 'मनुष्य' का सच्चे अर्थो में भौतिक, सामाजिक परिस्थिति में विकास होता है । 'मनुष्य' ही साहित्य का केंद्रबिंदू है और इस विषय की अनुभूति में साहित्य निर्माण होना चाहिए ऐसा वे कहते हैं ।