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अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार-८९

मनुष्य के जीवन में उदात्त मूल्यों का बीजारोपन शिक्षा के द्वारा होता है ।  विचारसामर्थ्य के साथ ही संवेदनशीलता देने का कार्य ही शिक्षा करती है । क्योंकि शिक्षा में बडी संस्कारक्षमता छुपी है । मनुष्य का मन शिक्षा के संस्कार से अधिक संपन्न किये बिना समाज सच्चे अर्थों से समझ नहीं पाता । व्यक्ति के वैचारिक और भावनिक समृद्धि के लिए शिक्षा जितनी अनिवार्य है, उतनाही वह समाज के सामाजिक और सांस्कृतिक विकास के लिए आवश्यक है । शिक्षा प्रसार के लिए राजकीय, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक महत्त्व होना चाहिए । विषमता के दलदल में रौंदे हुए और जाति-जाति में पीसे हुए समाज की तो शिक्षा के बिना प्रगति का विचार करना संभव नही है ।  ज्ञानभाषा और लोकभाषा एक हुए बिना समाज का जीवन समर्थ और विकसित नही  होता ।

शिक्षा से मनुष्य की बौद्धिक बैठक मजबूत होती है । विचारों मे प्रगल्भता आती है और निर्णय लेने के लिए मन को समतुल्यता आती है ।

'किसी कारण सुख से चला है कि नहीं यह देखने के लिए जैसे एकाध स्त्री रसोई घर में झाँककर देखकर तय करती है वैसे किसी महाविद्यालय की प्रगति वहाँ का ग्रंथालय देखकर की जाती है ।'

हिमालय के ऊपर की गंगा जब भगीरथी बनकर भूतल पर आती है, तबही वह लोकोपयोगी बनती है । उसी के अनुसार ज्ञान की गंगा समाज के निचले स्तर तक पहुँचनी चाहिए । ऐसा हुआ तो वह सब के लिए कल्याणकारी होगा ।

उपर्युक्त विवेचन से उनके शिक्षाविषयक विचार और सामान्य जनों के प्रति होनेवाली आत्मीयता प्रकट होती है । शिक्षा से ही सामाजिक परिवर्तन और नव समाज निर्मिति हो सकती है यह उनके मन की नीति थी । शिक्षा का प्रचंड प्रवाह महाराष्ट्र के प्रत्येक देहात में पहुँच जाना चाहिए । और उन देहातों में नयी पिढी सुशिक्षित होनी चाहिए । शिक्षा के आधार से क्रांति हो सकती है यह उनका विचार था ।    

डॉ. बाबासाहब आंबेडकर मराठवाडा विद्यापीठ के उपाधिदान समारोह में यशवंतरावजी ने कहा - 'विद्यापीठ में शिक्षा लेनेवाले विद्यार्थियों को स्थानिक प्रश्न समझकर उन्हें सुलझाने चाहिए । संकुचित प्रादेशिक भाव मन में से निकाल देने चाहिए । मराठवाडा जैसे महाराष्ट्र का घटक है वेसे महाराष्ट्र भी यह इस देश का घटक है । इस में राष्ट्रीय एकता को महत्त्व देना चाहिए ।'

विद्या की उपासना सब को करनी चाहिए । विद्या के सिवाय सभी उद्योग अंधे है यह उनकी सर्वव्यापी कल्पना थी । शिक्षा यह व्यक्ति के विकास का एक साधन है और यह सातत्यपूर्ण प्रक्रिया है । शिक्षा के आधार पर मनुष्यबल की कार्यक्षमता बढाकर मानवीय मूल्य और ध्येय का पालन पोषण हो सकता है । इसके लिए उन्होंने प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा को महत्त्व दिया । उच्च शिक्षा का लाभ सब को होना चाहिए । अशिक्षित युवक की अपेक्षा शिक्षित युवक ये अच्छे हैं । विद्यापीठ ने विद्यार्थियों को मातृभाषा में शिक्षा मिलनी चाहिए । शिक्षा में बुरी प्रथाओं का उच्चाटन यह शिक्षा से हो सकता है । महाराष्ट्र में तरुणों को उच्च शिक्षा के साथ तांत्रिक शिक्षा लेनी चाहिए । क्योंकि इस शिक्षा से राष्ट्र सामर्थ्यवान होगा । अमरिका में महाराष्ट्रीय तरुण तंत्रज्ञोंका समावेश अधिक है यही यशवंतराव चव्हाण के शिक्षाविषयक विचारों की फलश्रुति है । यशवंतराव चव्हाणने महाराष्ट्र में स्त्री शिक्षा और कृषि शिक्षा को महत्त्व दिया । उसके लिए विद्यापीठ की स्थापना की । बहुजन समाज में लडके-लडकियों को सहज सुलभ रीति से शिक्षा लेने के लिए अनेक रियाते, विशेषतः इ.बी.सी. सहुलियत दी गयी । इसलिए तो बहुजन समाज के अनेक तरुण डॉक्टर, इंजिनीयर, शिक्षक, वकील, वरिष्ठ अधिकारी आदि पदोंपर विराजमान हुए आप देखते हैं ।

महाराष्ट्र में अनेक शिक्षा संस्थाओं को सभी अर्थोंसे मदद की है । कर्मवीर भाऊराव पाटीलजी के द्वारा शुरू की हुई रयत शिक्षण संस्थाओं को आर्थिक मदद की । आगे यशवंतरावजी इस संस्था के अध्यक्ष हुए । आयु के अंतिम क्षण तक वे इस पदपर कार्यरत थे । इस पदपर रहते हुए तुम्हें सर्वाधिक आनंद कब लगेगा । इस प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि - 'मैं महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री हुआ, उसकी अपेक्षा मुझे अधिक आनंद मैं रयत शिक्षण संस्था का अध्यक्ष हुआ तब हुआ । मैं जीवन में राजनीति नहीं करता तो मैं उत्तम साहित्यिक अथवा शिक्षक हो जाता ।' इस भावना से यशवंतराव चव्हाण के मन में शिक्षाविषयक जो आत्मीयता थी वह स्पष्ट हो जाती है ।