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अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार-७४

यशवंतरावजी का निधन

१९७७ में संसदीय चुनाव में इंदिराजी के नेतृत्व में काँग्रेस पक्ष की पराजय हुई । उसके बाद १९८० तक यशवंतरावजी और भूतपूर्व प्रधानमंत्री इन दोनों में दुराव की भावना पैदा हुई । इससे यशवंतरावजी को बहुत मनस्ताप हुआ । १९८१ में उन्होंने इंदिरा काँग्रेस में प्रवेश किया ।

इसके बाद उन पर अनेक कौटुंबिक (पारिवारिक) आपत्तियाँ आयी । पुत्रवत परिपालन किया हुआ उनका भतीजा डॉ. विक्रम ऊर्फ राजा की मोटर अपघात में ८ मार्च १९८३ को मृत्यु हुई । डॉ. विक्रमजी की मृत्यु के बाद १ जून १९८३ में यशवंतरावजी की पत्‍नी सौजन्यमूर्ति वेणूताईजी चव्हाण का निधन हुआ । २ जून १९८३ में सुबह ११.२० बजे बम्बई के गिरगाव-चंदनगाव की स्मशानभूमि में उनका दहन किया गया । स्वर्गीय वेणूताईजी को कुल मिलाकर ६३ वर्षं ३ महिने और एक दिन की आयु मिली । उनकी मृत्यु से यशवंतरावजी को बडा दुख हो गया । उन्होंने धीरे धीरे अपने शोक को कम किया । वे आठवे वित्त आयोग के अध्यक्ष थे । उन्होंने वह अहवाल शासन के सामने प्रस्तुत किया । वे संसद सदस्य थे । उन पर सौंपे हुए काम अच्छी तरहसे किये । इन चार-पाँच वर्षों के काल में वे शांत थे । वे कहते थे कि - 'अब मुझे कुछ प्राप्‍त करने की इच्छा नहीं है । जनता जनार्दन के चरणों पर मैंने की हुई सेवा पेश हुई है । मेरा शरीर भी थकता जा रहा है, यह कुछ ध्यान में ही नहीं आया ।'

सौ. वेणूताई के विचार

तीन बातें करनी चाहिए - अच्छा विचार, अच्छी कृति, सच्चा और मीठा भाषण

तीन बातें अधीन (ताबे में) रखनी चाहिए -  अपना क्रोध (गुस्सा), अपनी जबान और अपनी इच्छा

तीन बातों पर भक्ति होनी चाहिए -  धैर्य, शांति और परोपकार

तीन बातों का स्वीकार करना चाहिए - समझदारी, भलाई और सहनशीलता

तीन बातों के लिए झगडना चाहिए - अपनी इज्जत, अपना देश और अपना मित्र

स्वार्थ अंधा होता है, वह धर्म और संस्कृति को जानता नहीं है ।

वे दिल्ली गये । उन्हें किडनी की बीमारी थी । वे अस्पताल में भरती हो गये । उपचार भी किये गये । पर कुछ उपयोग नहीं हुआ । वहाँ उनका निधन हुआ । निधन की तारीख थी २५ नवंबर १९८४ । शाम के ७ बजकर ४५ मिनट पर उनकी मौत हो गयी ।

२७ नवंबर १९८४ को दोपहर के ३.३० बजे कृष्णा-कोयना के संगम पर अग्नि दी गयी ।  सारे लोग शोकाकुल बन गये थे । यशवंतरावजी ७१ वर्षं ८ महिने १३ दिन जिये ।

लोगों को महाराष्ट्र की इस अस्मिता में अपनी छाया दिख पडती थी, शान लगती थी ।  इसलिए कभी अंधकार तो कभी प्रकाश देखते हुए जीवन की राह चलनेवाले साहबजीने अचानक अपना मानवी पहनावा उतारकर अनंत में विलीन होने का मार्ग अपनाया ।  और दस दिशाएँ भी मानवी रूप धारण कर जोर जोर से रोने लगी, ऐसा कहने लगी कि - 'नहीं, नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिए था ।'

अपना नेता कैसा होना चाहिए इसका मूर्तिमान रूप साहबजी के रूप में इस देश ने देखा है और मुल्क ने इसकी अपूर्वाई का अनुभव भी किया है ।

साहबजी अचानक भगवान के घर गये और सारा मराठी मुल्क गद्गद हो उठा, 'ऐसे कैसे हुआ ?' उसके साद-प्रतिसाद चारों ओर उभर आए और मनुष्य अबोल हुआ ।