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अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार-५४

लोकप्रिय नेतृत्त्व

सन १९४२ से १९६२ तक श्री. बालासाहेबजी खेर, श्री. मोरारजी देसाई और यशवंतरावजी चव्हाण इन तीनों ने महाराष्ट्र के नेतृत्व की जिम्मेदारी संभाली । परंतु यशवंतरावजीने अपने कार्यकाल में वास्तववादी और पुरोगामी नीति अपनायी । इसलिए उनका नेतृत्व अधिक लोकप्रिय हुआ । इस काल में साहित्य, संस्कृति, समाजसुधार, सहकार, कृषि, शिक्षा, उद्योग आदि के बारे में महाराष्ट्र को प्रगति पथ पर ले जाने का महान कार्य उन्होंने किया । अपने कार्यकाल में सहकार के लिए पूरक योजना, सिंचन प्रकल्प शुरू किये । कोयना जल विद्युत प्रकल्प, मराठवाडा में पूर्णा प्रकल्प, विदर्भ में पारस थर्मल पॉवर स्टेशन ये यशवंतरावजीने महाराष्ट्र को दिये हुए बडे उपहार है । वरली दूध योजना, कोकण रेल्वे का श्रीगणेशा, भूमिहिनों को जमीन देना आदि योजना का आरंभ उनके कार्यकाल में हुआ । देश में स्थिर, पुरोगामी और सभी बारे में जागृत राज्य ऐसी महाराष्ट्र की प्रतिमा निर्माण हुई और वह आज भी कायम है । इसका संपूर्ण श्रेय यशवंतरावजी के पुरोगामी और वास्तव दृष्टिकोन है ।

जातिपर आधारित ग्रामीण समाजसुधारणा नष्ट करने का और स्वातंत्र्य, समता, बंधुत्व और न्याय इन तत्त्वोंपर आधारित नयी ग्रामीण समाजरचना निर्माण करने का क्रांतिकारी कार्य उन्होंने किया । यह राज्य 'मराठा' राज्य होगा, या 'मराठी' राज्य होगा यह शक दूर कर महाराष्ट्र राज्य का नाम सार्थक किया । यह राज्य किसी एक विशेष जाति-जमाति का न होकर सभी मराठी जनता का राज्य है ऐसा यकीन उन्होंने दिलाया ।

यशवंतरावजी ने अपने कार्यकाल में डगमगानेवाली काँग्रेस को सँभाला और उसे योग्य दिशा दी । उन्होंने काँग्रेस कार्यकर्ताओं की एक बलशाली संघटना बनायी । जगह जगह पर काँग्रेस शिबिर लेकर काँग्रेस कार्यकर्ताओं को समाजबोधन की शिक्षा दी । उन्होंने कार्यकर्ताओं को एक वैचारिक अधिष्ठान प्राप्‍त कर दिया । वैसेही काँग्रेस संघटना और शासन इन दोनों में सुसंवाद स्थापित किया और तरुण पिढी को, काँग्रेस को बलवान करने की दृष्टि से प्रयत्‍न किया । यशवंतरावजी की वैचारिक विरासत लेकर आगे हुए शरद पवारजी जैसे अनेक तरुण उस पिढी के प्रतिनिधी है ।

इंदिरा गांधीजी की हत्या के बाद जो परिस्थिति निर्माण हुई थी उसे ध्यान में लेकर यशवंतरावजी ने राजीव गांधीजी का समर्थन किया । यशवंतरावजी को अपनी आयु में कुछ प्राप्‍त करने की अभिलाषा नहीं थी । स्वातंत्र्य के लिए वे अपने सोलहवे वर्ष में स्वातंत्र्यसंग्राम में कूद पडे थे । अपना देश अखण्ड रहना चाहिए यहीं उनकी दृढ इच्छा थी । काँग्रेस पर उनकी अनन्य निष्ठा थी । काँग्रेस ही उनके जीवन का धर्म बन गया था । उस काँग्रेस की शतसंवत्सरी देखने के लिए वे आज अपने में नहीं है, इसका अफसोस असंख्य काँग्रेस नेताओं को होता रहेगा ।