आर्थिक परिस्थिति
राजनैतिक, सामाजिक-धार्मिक परिस्थितियों के साथ ही आर्थिक परिस्थिति भी चिंतनीय थी । 'मानसून की दया पर जीवित रहनेवाला भारत अकालों में जीवित रहने का जैसे अभ्यस्त हो चुका था । यशवंतरावजी के जन्म से पूर्व १८५० और १९०० के मध्य २४ अकाल पडे थे, जिन में से १८ तो १८७५ और १९०० के बीच के ही थे । अवश्य ही १९०० से १९५० के मध्य अनेक उद्योगों की नींव भारत में डाली गयी । लोहा, कपडा, चीनी आदि सभी उद्योग प्रगति करने लगे, परंतु साथही उनकी शोषण-विधियों ने भी कम प्रगति नहीं की । भारतीय जनता ने १९०५ में सर्व प्रथम स्वदेशी आंदोलन के माध्यम से साम्राज्यवादी सरकार की आर्थिक नीति के विरुद्ध क्रांति की भावना व्यक्त की । संपूर्ण देश में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई । बंग-भंग के बाद आंदोलन की गति और भी तीव्र हो गई । कर्जन के शासन का राजनीतिक और आर्थिक फल बहिष्कार है । ऐसा निष्कर्ष सहजही निकाल लिया गया । बडे उद्योगों के समूह लघु उद्योग कुचल कर रह गये । बकनन के मत से 'थोडे से औद्योगिक केंद्र जरूर है, लेकिन दस्तकारी से जितने लोगों की रोटी चलती है, कारखानों से उससे अधिक लोगों को रोजी नहीं चलती । देश के प्रति वर्ष के आयात से निर्यात कम है । शोषण के विरुद्ध बार-बार प्रदर्शन होते रहे, पर उसे किसी भी मूल्य पर रोका नहीं जा सका ।
इ.स. १९७४ में भारत विभाजन के फलस्वरूप, देश में आर्थिक अव्यवस्था बढ गई । विभाजन ने गेहूँ, कपास, चावल, जूट आदि के उपभोक्ता क्षेत्र भारत को दिये और उत्पादन क्षेत्र पाकिस्तान को । फलतः जनताने आर्थिक दशा सुधारने के लिए नई सरकार के आगे जोरदार माँगे प्रस्तुत की । डॉ. व्ही. के. आर. वी. राव के मत से 'भारत की नई सरकारने अगम अपार कठिनाइयों के बीच जीवन की राह पर कदम उठाया था । और जो आस्थावान थे, उनके अतिरिक्त किसी को भी यह स्पष्ट न था कि परिणाम क्या होगा ।'
इ.स. १९६५ से पूर्व तक योजनाओं पर जिस प्रकार हाथ खोलकर व्यय किया, उससे लाभ एक विशेष वर्ग को ही हुआ । इससे आर्थिक विषमता बढ रही है । खाद्य की कमी के कारण हमने केवल खाद्य पदाथों का ही आयात नहीं किया; हमारे देश ने विदेशों से केवल धन ही ॠण पर नहीं लिया, बल्कि विचारों का भी खुले आम बडी शान से आयात किया । भारतीय मनीषा विदेशों से विचारों का बडी मात्रा में ॠण ले रही थी । फ्रायड, मार्क्स, इलियट, ईट्स आदि इस क्षेत्र में भारतीय मनीषा को ॠण देनेवाले रहे ।
यशवंतरावजी के मन पर इन सब राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक परिस्थितियों का गहरा प्रभाव पडा । परिणाम यह हुआ कि देश स्वतंत्र होनेपर उन्होंने ये सब बातें ध्यान में रखी और जब शासक बने तब ये बात ध्यान में रखकर अपना राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक कार्य शुरू किया । यह कार्य शुरू करते समय उन्होंने हमेशा अपने सामने म. जोतीराव फुले, राजर्षि छत्रपती शाहू महाराज और डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के विचारों को सामने रखा ।
निष्कर्षतः युगीन परिस्थितियों के संदर्भ में राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, आदि की दृष्टि से इनका नेतृत्व भारतीय राजनीति में अपना पृथक महत्त्व रखता है ।
इस प्रकार के राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक परिवेश में स्व. यशवंतरावजी चव्हाण का आविर्भाव और उनके नेतृत्व का विकास भारत के राजनैतिक इतिहास की एक अनिवार्य और महत्त्वपूर्ण घटना है ।