माँ ने एक अर्थ से - बच्चोंको उसके विचार से एक तत्त्वज्ञान दिया था । वह गृहस्थी चलाती थी । उस में क्या समस्याएँ होती हैं यह उसे मालूम था । पर वह बच्चों को धैर्य देती थीं ।
यशवंतरावजी ने कहा कि - 'मेरी माँ सुसंस्कृत थी । यह उसके बर्ताव और बोलने से दिखाई देता था । हमारे घर की गरीबी क्यों न हो, लेकिन हमारे घर कोई आये गये तो उनका यथाशक्ति उचित आदरातिथ्य करने में उसने कभी गलती नहीं की । कभी कभी रिश्तेदार और देवराष्ट्र के आठ-आठ, दस-दस लोग मेहमान होकर आये, तो भी उसने सब की व्यवस्था की । वह कहती थी कि, हमे फाका पडेगा तो चलेगा पर आने जानेवालों को पेटभर भोजन दिलाना चाहिए ।'
देव धर्म पर उसकी श्रद्धा थी । रामायण के कथा के बारे में उसे बहुत आदर था । कराड के एक मंदिर में रामायण की कथा पढी जाती थी । वहाँ जाकर वह अनेक महिनों तक वह कथा सुनती थी । बीच बीच में वह मुझे भी ले जाती थी । उसके साथ जाकर मैंने भी राम कथा सुनी और मेरे मन में भी रामकथा के बारे में रस निर्माण हुआ । माँ को रामायण की कथा प्रसंगोसहित मालूम थी । फिर मैं उसे उलटे-सुलटे प्रश्न पूछता था ।
तब माँ कहती है - 'तू पढा लिखा है, वह पढकर देख ले । मैंने जो सुना है वह भक्तिभावना से सच मानती हूँ । (राम कथा तब से मेरी प्रिय कथा बन गयी है ।)'
माँ बीच बीच में साखरेबुवा की 'सार्थ ज्ञानेश्वरी' पढकर लेती थी । ज्ञानेश्वरी समझने के लिए थोडी कठिन । पुरानी भाषा होने के कारण वह यशवंतरावजी को जैसा समझना चाहिए था वैसे समझ में नहीं आता था । लेकिन वे पढते थे और वह उसे भक्तिपूर्वक सुनती थी । एक सप्ताह में यशवंतरावजी ने उसे दो अध्याय पढाकर दिखाए, तब उसे पूछा - 'तुमने यह सब सुन लिया, उसका सारांश तुम्हारे मन में क्या आया ?'
उसने यशवंतरावजी से एक वाक्य में कहा - 'कृष्णदेव अर्जुन से कहते हैं कि, तू अपना 'अहं' छोड और तुम्हें जो काम करना चाहिए, वह काम तू करते रहना । सब ऐसा कहते हैं और वह उचित है ।'
यशवंतरावजी ने कहा है,''गीता का इतना सरल, सीधा और आसान आशय मैने दूसरे पंडित से सुना नहीं है । उसकी समझ अच्छी थी । मन धैर्यशील था और उदार था ।''
यशवंतरावजी के अनुसार - 'हमारी सच्ची शाला हमारी माँ थी ।''
बचपन में एक बार यशवंतरावजी नानी और माँ के साथ पंढरपूर जाकर विठ्ठल के दर्शन करके आये थे । उसके बाद यशवंतरावजी अनेक बार पंढरपूर गये हैं लेकिन वे पहले या पूर्व दर्शन की याद भूलते नहीं है । प्रसिद्ध प्राप्त होने पर, सत्ताधारी होने पर यशवंतरावजी ने विठ्ठल का आराम से दर्शन किया है । लेकिन बिगडनेवाले बडवे की ओर ध्यान न देकर माँ ने छोटे यशवंतरावजी को उठाकर विठ्ठल के पैरोंपर उन्हें रखकर विठ्ठल का दर्शन करवाया । उसकी अपूर्वाई यशवंतरावजी को हमेशा याद रहती है । भीड में से वे चार दो दिन, चंद्रभागा की रेती में होनेवाले भजनों के समूह (फड) और वहाँ चले हुए अच्छे भजन, उनकी वह मीठी आवाज आदि सब घटनाएँ और चित्र आज भी यशवंतरावजी की आँखों के सामने आते हैं । जब यशवंतरावजी पंढरपूर जाकर विठ्ठल के दर्शन लेते थे, लोग पूछते थे । इसमें श्रद्धा का भाग कितना ?