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अभिनंदन ग्रंथ - (हिंदी लेख)-महाराष्ट्र दर्शन-1

महाराष्ट्र दर्शन

डॉ. ज्ञानवती दरबार

भारत के इतिहास की परंपरा में नवनिर्मित महाराष्ट्र प्रदेश का विशेष स्थान है । जन-आन्दोलन की इस प्राचीन और प्रगतिशील पुण्यभूमि में आज एक बार पुन: वहां की जनता में नवोत्साह के दर्शन होते है । मराठी भाषा-भाषी लोगो के छिन्नभिन्न समुदायों की शासकीय दृष्टि से एकीकरण कर इस नवप्रदेश का निर्माण हुआ है । वहां के भ्रमण और दर्शन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इस प्रदेश की जनता के हृदय में ऐतिहासिक दशाओ और शासकीय व्यवस्थाओ से प्रादुर्भूत विभिन्न भावनाएं विद्यमान है । सन् १९४७ में जब भारत को स्वतंत्रता के प्रथम दर्शन हुए तब जन-हृदयों में बडी बडी आशाएं और उमंगे थी । किसी भी वर्ग या समुदाय का कोई व्यक्ति क्यो न हो, उसे राष्ट्र की इस नवचेतना के प्रति विशेष उल्लास था और अपने अपूर्ण जीवन में विविध रूप ते पूर्णता प्राप्ति की आकांक्षा । आज के महाराष्ट्र में इस तथ्य का एक बार पुन: दर्शन होता है । फिर भी यद्यपि नव-स्वातंत्र्य के प्रति जन-हृदय में विशेष श्रद्दा का भाव था, किन्तु मनोवैज्ञानिक रुप मे उसमें किंचित् निराशा अथवा अनुत्साह का वातावरण प्रतीत होता था । राजनीतिक व्यवस्था का पट-परिवर्तन जनता की प्रमुख अभिलाषा थी । इस पृष्ठभूमि में वर्तमान महाराष्ट्र प्रदेश का निर्माण जन-हृदय की चिर-अपूर्त वांछा की पूर्ति एवं जन-साधारण को संतोष प्रदान करनेवाला कहा जाएगा । यूं ऐतिहासिक और भौगोलिक कारण इसमें सहायक हुए, किन्तु इसका मुख्य श्रेय वर्तमान नेताओ की सूझ और उनके द्वारा जनता में उपयुक्त भावनाओ की जागृति ही कहा जाएगा ।

अभी हाल ही में उत्साह और उमंग की जिस उत्ताल तरंग के इस नवप्रदेश में विशेष दर्शन हुए, उसमें आशाओ की तरल तान और अभिलाषाओं का मूर्त दर्शन होता है । वहां की चलती फिरती मानव मूर्तियों और गलियों के दृश्य हमें बरबस उस भूतकाल में पहुंचा देते है और वहा के मैदान हमें उनके कण-कण में व्याप्त अतीत का एक महान संदेश सुनाते मालूम होते है । उन मैदानो के उस पार बिखरी सह्याद्रि की शैल मालाएं हमसे मानों बातें करती है और उस समय से आज तक वर्षा और आतप में तपे हुए किले मानो ऊन वीरगाथाओ को सुनने के लिये हमे निमंत्रण देते हुए मालूम होते है । वास्तव में सारा वातावरण स्वयं एक मूर्त्तजीवन बनकर सामने आता है, वह बोलता है, चलता है और प्रेरणा देता है । इस बाहरी वातावरण से प्रभावित होकर मनुष्य अन्तर्देश में झाकता है । कौई वस्तु उसे विश्वास दिलाती हुई जान पडती है कि महाराष्ट्र को जानने और इस परिवर्तन के महत्त्व को समझने के लिय यही बाह्यन्तर दर्शन, उसका समन्वित चिन्तन और भूत तथा अर्वाचीन का समीकरण ही सहायक बन सकता है ।

महाराष्ट्र जिन विविध रुपो और अभिनव दृश्यो को उपस्थित करता है उन्है देखने का मुझे अवसर मिला है । एक ओर पुरानी वीर गाथाओं और व्यापार की प्राचीन वैभवपूर्ण गतिविधियों से थके दूर उत्तर कोंकण का शांत सागर-तट अपने नादमय स्वरों से स्वागत करता प्रतीत होता है । मुरूड से अलीबाग तक का सागरप्रदेश सदा मानो अपने ही संसार में डूबता, उतरता औस लहरता रहता है । दूसरी ओर नीचे दक्षिण की ओर जैसे जैसे नारियलके कुंज घने बनते जाते है, हरियाली हा रंग गहरा होता है और कोंकण की परंपरा प्रोढ बनती है, तब दृश्य मी मनोहारी बनते जाते है और चित्र भी बदल जाते है । इससे भी आगे गोआ के पुर्तगाली भाग को पीछे छोडकर जहां मराठा प्रदेश की सीमा कन्नड भाषी कर्नाटक से जुडती है, एक बिल्कुल नयी हवा का झोंका हमें स्पर्श करता है । इस समुद्र के किनारे के पूर्व में सह्याद्रि की पर्वत श्रेणियां एक के बाद एक घनी पंक्ति में खडी दक्षिण को एक विशेषता प्रदान करती है और साथ ही साथ कृष्णा और गोदावरी दो प्रमुख नदियो को जन्म देती है । यह वही प्रदेस है जहा के वीरान मैदान और पर्वत इन नदियों को अलग करते है और यही वह प्रदेश है जहा पराक्रमी मराठी रहते थे । यही उस वीर मराठा जाति की जन्मभूमि है जिसने तत्कालीन परिस्थितियों में देश में दूर दूर अपने शौर्य और पराक्रम का सिक्का जमा दिया था ।