शालेय जीवनमें ही हमें यशवंतरावके अटूट आत्म-विश्वास, दृढ मनोबल और अपूर्व निर्धार-शक्ति के दर्शन होते हैं । यशवंतराव तब अंग्रेजी चौथी कक्षाके विद्यार्थी थे । एक बार कक्षामें श्री शेणोलीकर गुरुजीने सभी विद्यार्थियों से प्रश्न किया कि उनकी अंतिम महत्वाकांक्षा क्या है ? किसीने बताया कि मैं लोकमान्य तिलक बनना चाहता हूँ, तो किसीने कवि यशवंत बननेकी अपनी मनीषा प्रगट की । किसीने देशके लिए मर मिटनेकी तमन्ना बताई, तो किसीने डॉक्टर, वकील बनकर समाजसेवा करनेका बीडा उठाया । लेकिन जब यशवंतरावकी बारी आई तब उन्होंने अपने स्थानसे उठकर शांत पर धीरगम्भीर वाणीमें कहा : ''मैं यशवंतराव चव्हाण बनूँगा!'' यह प्रत्युत्तर कितना अर्थगंभीर और रहस्यमय था । जो जवाब माध्यमिक शालाके एक विद्यार्थीने तपाकसे दे दिया क्या वह किसी स्नातक को भी कभी सुझेगा ? यशवंतरावकी कुशाग्रबुद्धि और दृढ आत्म-निर्धारकी प्रतीति हमें इस उत्तरसे भली-भाँति हो जाती है ।
यशवंतरावके राजकीय-जीवनका श्री गणेश तिलक माध्यमिक शालासे होता है । सन् १९३० के असहयोग आन्दोलनमें सक्रिय भाग लेनेका निश्चय कर यशवंतराव उसे अमलमें लानेकी कोशिश करने लगे । माध्यमिक शालाके प्रशस्त मैदानमें एक नीमका पेड था । यशवंतराव उस पेडकी सबसे ऊँची टहनी पर राष्ट्रध्वज फहराकर ध्वज-वंदन करते रहते । इस कार्यमें यशवंतरावके अलावा तीन चार अन्य मित्र भी भाग लेते थे । उस कालमें राष्ट्रध्वज फहराना, राष्ट्रके लिए काम करना आदि बातें राष्ट्र-द्रोह मानी जाती थीं । ब्रिटिश-सत्ता ऐसे आन्दोलनका पूरे बलसे दमन करने में लगी हुई थी; और जो ऐसे कार्योंमें भाग लेता था वह बागी समझा जाता था । सरकार उसे वर्ष, डेढ वर्ष, दो वर्षके लिए सीखचोंके पीछे ढकेल देती थी । तिलक माध्यमिक शालाका ध्वज-प्रकरण भी हवाकी तरह शिक्षणाधिकारीके कानों पर पहुँच गया । तत्कालीन शिक्षणाधिकारी पहले से ही तिलक शाला पर दाँत लगाए हुए थे । वे ऐसे किसी अच्छे मौकेकी ताकमें ही थे । बस, फिर उन्हें क्या चाहिए ? उन्होंने यशवंतराव और शालाके प्रधानाध्यापकको फौरन अपनी कचहरीमें बुला भेजा । सबके सामने यशवंतरावसे पूछा गया : ''ध्वजवंदन तुम किसकी अनुमतिसे करते हो ?'' प्रत्युत्तरमें यशवंतरावने निर्भयतासे कहा : ''स्वयंस्फूर्ति से !'' यशवंतका जवाब सुनकर शिक्षणाधिकारीका मुँह उतर गया । उसकी बई-बनाई योजना मिट्टीमें मिल गई । शाला पर किसी प्रकारका दोषारोपण करनेमें वह असफल सिद्ध हुआ ।
शिक्षणाधिकारीकी आंतरिक इच्छा थी कि यशवंतराव इस कार्य को बढावा देनेवाले व्यक्तिका नाम-निर्देश कर दे ताकि शालाकी मान्यता निकाल ली जाए और उसकी किस्मतका पासाँ पलट जाए । पर यशवंतराव भी कच्ची गोली न खेले थे । उन्होंने कुछ भी नहीं बताया और शिक्षणाधिकारीको अपना सा मुँह लेकर रह जाना पडा ।
ध्वज-प्रकरण शांत हो जाने पर भी यशवंतराव चुप न बैठ सके । वह जमाना ही देशके लिये मरमिटनेवालोंके अमर बलिदान और जोशका था । यशवंतराव भी अपने विद्यार्थी साथी-संगियोंके साथ मिलकर देश-सेवामें जुटे हुए थे, जिसमें श्री डोईफोडे, श्री दयार्णव कोपर्डेकर आदि मुख्य थे । २६ जनवरी १९३२ के दिन वे अपने एक साथी के साथ पुलिस द्वारा गिरफतार किये गये। घटना ऐसी बनी कि २६ की रातमें कोई १२ से २ बजे के समय यशवंतराव अपने साथी श्री फोडे, श्री कोपर्डेकर आदिके साथ कराड पुलिस चौकीकी दीवार पर आजादीका घोषणा-पत्र लगाने गये थे । पुलिसको नींदमें झोंकें खाते देखकर वे आगे बढ घोषणा-पत्र चिपका ही रहे थे कि अचानक पुलिसने धर दबाया । दूसरे साथी तो पीछेकी गलीसे नौ दो ग्यारह हो गये । पर यशवंतराव बच न सके और इस प्रकरणको लेकर उन्हें १८ महीनेकी सख्त कैदकी सजा हुई ।
जेलसे छूटने पर युवक यशवंतरावने पुनः अपना नाम तिलक माध्यमिक शालामें दर्ज कराया और राष्ट्रीय ज्वारके कारण शिक्षामें पडे खंडको पूरा करनेमें जी-जानसे लग गये । शालेय-जीवनमें मराठी, इतिहास और गणित विषयमें वे एक प्रतिभाशाली और मेधावी छात्र गिने जाते थे । उनकी स्मरण-शक्ति काफी अच्छी थी । शुरूसे ही वे गुरुदेव रवीन्द्रनाथके साहित्यके उपासक थे, उसमें भी उनकी कविताओंसे इन्हें विशेष लगाव था । जिस तरह यशवंतरावको बाह्य-पठन और ज्ञानोपासनाकी प्यास थी ठीक उसी प्रकार वे यदा कदा कलम भी चलाया करते थे ।