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यशवंतरावजी चव्हाण व्यक्ति और कार्य -४०

लोकमान्य तिलक के श्राद्धदिन १ अगस्त को पूना की सार्वजनिक सभामें पंडित नेहरू ने पुनः एक बार बम्बई की चर्चा करते हुए घोषित किया, वातावरण में शांति छा जाने पर तथा दैनंदिन कार्य की रफ्तार नियमित हो जाने पर वे खुद हो कर बम्बई को महाराष्ट्र में मिलाने की सिफारिश करेंगे । पंडितजी की बार बार की घोषणा से प्रोत्साहित हो, अखिल भारतीय कीर्ति के कुछ नेताओं में विशाल द्विभाषिक की योजना की चर्चा होने लगी । इन नेताओंमें सुप्रसिद्ध गान्धीवादी प्रजासमाजवादी नेता आचार्य कृपलानी, साथी अशोक मेहता, श्री देशमुख, श्री ह. रा. कामथ, श्री फिरोज गांधी आदि मुख्य थे । इन्होंने परस्पर प्रदीर्घ चर्चा-विचारणा कर अपनी योजना पूना से लौटने पर पंडित नेहरू के समक्ष रखी और उनकी शुभाशिष प्राप्‍त की । तत्पश्चात् २८२ सर्वपक्षीय संसद सदस्यों के हस्ताक्षर इकट्ठे कर विशाल द्विभाषिक की योजना संसदगृह में सादर की । काँग्रेस संसदीय मंडल ने अपनी ६ अगस्त १९५६ की आवश्यक बैठक में उक्त योजना को मान्यता प्रदान की । १० अगस्त को विशाल द्विभाषिक को भारतीय प्रजातंत्र की सर्वोच्च सत्ता संसदगृह ने एक प्रस्ताव पारित कर मान्य किया ।

हालाँकि इस योजना से यशवंतराव का पूर्ण समाधान नहीं हुआ; लेकिन राष्ट्रीय ऐक्य तथा दलनिष्ठा के प्रतीक स्वरूप उन्होंने इस निर्णय को शिरसावंद्य कर कार्यान्वित करने का निर्धार किया । तदनुसार ११ अगस्त को पूना में काँग्रेस भवनमें आयोजित कार्यकर्ता एवं निमंत्रितों की सभा में दृढ स्वरमें कहा : ''कल बम्बई विषयक जो निर्णय लिया गया है उसे हमें अब अंतिम निर्णय ही मानना चाहिए और उसे कार्यान्वित करने के लिए तन मन धन से जुट जाना चाहिए ।'' तत्पश्चात् हमारे चरित्रनायकने पूना जिला का त्रि-दिवसीय झंझावाती दौरा किया । दौरे में उन्हें सासवड, इंदापुर, बारामती तहसीलों में प्रेम के साथ अपमान का भी सामना करना पडा । इनके प्रभावी प्रचार-तंत्र से समिति नेता घबरा उठे । अगर इनको न रोका गया तो बनी-बनाई बाजी धूल में मिल जाएगी । काफी सोच विचार कर समिति-नेताओंने जहाँ यशवंतराव का कार्यक्रम हों - अपने समानान्तर कार्यक्रम करने का निश्चय किया । यशवंतरावने फिरभी अपनी जिद्द न छोडी । वे जानते थे कि जनता काँग्रेस के पीछे हैं और काँग्रेस की नीति में ही अपना तथा महाराष्ट्र का हित सुरक्षित समझती है । लेकिन समिति का भस्मासुर उन्हें सही मार्गसे गुमराह कर विस्फोटक परिस्थिति निर्माण करने के लिए विवश करता है । यशवंतरावने प्रेम से, समझौते से, चर्चा-विचारणा से इस स्थिति पर नियंत्रण पाने में ही कल के महाराष्ट्र का हित और कल्याण समझा !

वास्तवमें देखा जाय तो विशाल द्विभाषिक का निर्णय हो जाने के पश्चात् संयुक्त महाराष्ट्र का बार-बार पुरस्कार करना एक प्रकार का पागलपन ही था । क्योंकि विशाल द्विभाषिक में बम्बई सह मराठी भाषी समस्त प्रदेश का समावेश था । गुजरातियोंके बनिस्बत महाराष्ट्रियों की जनसंख्या का अनुपात भी १:३ था । सभी प्रश्नों पर महाराष्ट्र अपनी बहुमति से इच्छित नीति अपना सकता था । साथही गुजरात की संपदा और महाराष्ट्र के श्रम का सम्मिश्रण हो भारत के एकमेव बडे राज्य विशाल द्विभाषिक का प्रगत, उन्नत, समृद्ध एवं ऐश्वर्यशाली होना सुनिश्चित है । फिर भी समिति नेता एवं कुछ काँग्रेसियों ने अपना हठाग्रह अंत तक कायम रखा । इसी प्रश्नको ले, बम्बई के उपमद्यनिषेध मंत्री श्री नरवणे, खेर मंत्रीमंडल के श्री ल. मा. पाटील आदि ने काँग्रेस से इस्तीफा दे, वामपक्षियों से गठबंधन किया । महाराष्ट्र के सुशिक्षित समाज में यह वंदना घर बस गई थी कि लोकमान्य के अनन्तर पूज्य बापू और उनके अनुयायी अखिल भारतीय राजनीति से महाराष्ट्र को नेस्तनाबुद करनेका जान-बुझकर प्रयत्‍न कर रहे हैं । परिणाम यह हुआ कि समय के साथ महाराष्ट्र का बुद्धिवादी-वर्ग काँग्रेस से दूर होता गया । और बहुजन समाज निकट और निकटतर । तर्कतीर्थ श्री लक्ष्मणशास्त्री जोशी, श्री. ह. रा महाजनी, श्री. सी. डी. देशमुख, शंकरराव देव, रावसाहब पटवर्धन और आचार्य विनोबा भावे आदि लोग अवश्य हैं । आज भी महाराष्ट्र में जो अपनी स्पष्टवादिता और दूरदर्शी विचारधारा से जनतंत्र का सही मूल्यांकन कर सकते हैं । पर बुद्धिवादी वर्ग इनसे किनाराकशी करते थे । इन लोगोंने भी राष्ट्रीय हित एवं महाराष्ट्र के हितार्थ भाषाई आन्दोलन का निषेध कर विशाल द्विभाषिक का पूर्ण समर्थन किया था । संयुक्त महाराष्ट्र के प्रश्न पर महाराष्ट्रीय नेताओं द्वारा अंगिकार की गई नीति और वृत्ति की समालोचना करते हुए तर्कतीर्थ श्री लक्ष्मणशास्त्रीने पूना की वसंत व्याख्यानमाला के व्यासपीठ से समिति की आतंकवादी नीति की जरा भी परवाह किये बिना रामशास्त्री की तरह स्पष्ट शब्दों में कहा कि, ''राज्यनीति शास्त्र के दृष्टिकोण से महाराष्ट्र भरमें संयुक्त महाराष्ट्र के प्रश्न पर अगर किसी की नीति सही है तो वह केवल यशवंतराव चव्हाण ही हैं ।''