संसदमें राज्यपुनर्गठन विधेयक पारित होने के चार-पाँच महीने बाद सच्चे रूपमें राज्यपुनर्गठन होनेवाला था । और अब लगभग यह निश्चित था कि विदर्भ-मराठवाडा-सहित संयुक्त महाराष्ट्र, कच्छ-सौराष्ट्र-युक्त गुजरात और केन्द्रशासित बम्बई - इन तीन भागोंमें बम्बई राज्य विभाजित होनेवाला था । कुछ अवधि तक बम्बई केन्द्राधीन रह, तप्त वातावरण शांत होने पर उसका समावेश संयुक्त महाराष्ट्र में होनेवाला था । लेकिन यहाँ महाराष्ट्र असंतोषाग्नि में घूँ-घूँ जल रहा था । अगर समय रहते विरोधी दलों की योजना सफल होगई और बम्बई शांत न हुई तो यह ध्रुव-सा अटल था कि हमेशा के लिए महाराष्ट्र को बम्बई से हाथ धोने पडेंगे । यशवंतराव को यह प्रतीति भली भाँति होगई थी अतः उन्होंने बम्बई विरहित संयुक्त महाराष्ट्र के स्वागतार्थ तथा उत्तम शासन-प्रणाली का आदर्श उपस्थित कर बिगडी बाजी बनाने का मन ही मन निश्चय किया । इधर समिति अपनी वाणी तथा कृति से आतंकवादी परिस्थिति निर्माण करने में लगी हुई थी । काँग्रेसजन अपने चंचल और अनिश्चयात्मक रूख से जनता में अप्रिय हो चले थे । उनका एक शब्द भी कोई सुनने के लिए तैयार न था--फलतः वे निराश और निरुत्साही बन गये थे । अगर उन्हें इस तरह की दुविधाजनक स्थिति से बाहर निकालना हो तो किसीका सीना ठोक कर सामना करने के लिए मैदानमें आना अत्यंत आवश्यक था । तदनुसार यशवंतराव ने बम्बई विरहित मराठी राज्य की पार्श्वभूमि तैयार करने का श्री गणेश किसी अन्य स्थान से करने के बजाय अपनी जन्मभूमि सातारा जिले से किया । ८ जुलाई १९५६ के दिन लोकल बोर्ड के शिवाजी सभागृह में सातारा जिला काँग्रेस कार्यकर्ता एवं निमंत्रितों की सभा को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा, ''सार्वजनिक रूपसे किसी विचार-धारा का प्रचार करने के पूर्व सर्व प्रथम अपने ही घर में उसका योग्य मूल्यमापन करना चाहिए । तदनुसार मैंने अपनी नीति का सारे महाराष्ट्र में प्रचार करने के पहले यहाँ व्यक्त करना यथेष्ट समझा । महाराष्ट्र के जीवन को नया मोड देने का कार्य पिछली एक दशाब्दि से हम लोग कर रहे हैं । यह जीवन किसान और मजदूरों का विकास साधनेवाला होता । इस कार्य में हमने श्री तात्यासाहब जेथे के मार्गदर्शन में कुछ प्रगति भी की । लेकिन आज बडा बांका प्रसंग आ खडा हुआ है हमारे सामने--जिसमें फँस कर सारे महाराष्ट्र का जीवन अस्ताव्यस्त हो गया है । इसमें हमारी करारी पराजय हुई है लेकिन कहते हैं न कि "Failure is the first step of success ?" विफलता सफलता का प्रथम सोपान है । हमें भी पराजय से विजय की ओर प्रस्थान करना है । हमारे मार्गदर्शन के लिए लोकमान्य जैसी महान् विभूतियाँ नहीं हैं लेकिन किसी भी परिस्थिति में हमें कठिनाइयों को पार कर सफलता को वरना है । ऐसी स्थिति में भी मेरी देशनिष्ठा कायम है । मैंने अपने जीवन को देश, दल और शांतिमय उत्क्रांति की सीमाओं से बाँध रखा हैं । जब जब प्रसंग आया मैंने अन्याय के विरुद्ध सिर उठाया है । लेकिन जब माँ ही सामने खडी हों तब किससे लडा जाएँ ! हाँ, माँ से लडा जा सकता है । लेकिन जब माँ कह दे कि तुम्हारा मार्ग गलत है, मैं कहूँ उसी मार्ग से जानने में ही तुम्हारी और सारे परिवार की भलाई छिपी हुई है, तब हमें माँ की आज्ञा शिरोधार्य करनी ही पडेगी । संभव है कि किसी जमाने में महाराष्ट्र ने दिल्ली-पति से दो-दो हाथ किये थे । लेकिन आज किससे किये जाय - पंडित नेहरू से जो हमारे प्रधान मंत्री हैं, या फिर पंडित पंत से जो देश की रक्षा के खड्ग प्रहरी है ? कहीं कहीं से आवाज आती है कि संयुक्त महाराष्ट्र के लिए हम अपने खून की अंतिम बूंद तक तैयार है । लेकिन भाइयों, मुझे खून नहीं चाहिए । अगर देना ही है तो भारत और महाराष्ट्र के नव निर्माण के लिए श्रम, संपत्ति और शक्ति दो । सहयोग दो । हमने जो माँग की थी वह दो-चार महीनों के भीतर ही पूरी होने जा रही है । अब रहा प्रश्न बम्बई का । अगर बम्बई प्राप्त करना है तो जो हमारे आंचल में डाला जा रहा है उसका उत्तम ढंग से प्रशासन कर एक आदर्श उपस्थित करें । विश्वास रखो, वह आदर्श ही हमें बम्बई दिलाने का निमित्त बनेगा । हमारे सहयोगी कहते हैं कि बम्बई का समावेश नये राज्य में न होने के कारण काँग्रेस की शक्ति क्षीण होगई है । लेकिन मैं इस बात को मानने के लिए कतई तैयार नहीं । संसद जो निर्णय देगी वही हमें कार्यान्वित करना है । हम अपनी तरफसे कोई दूसरा निर्णय कार्यान्वित नहीं कर सकते अथवा समिति अधिकारारूढ होजाय तो वह भी नहीं कर सकती । और फिर जनशक्ति तो उस लहर की तरह है जो क्षण में उठती है और दूसरे ही क्षण शांत हो जाती है ।''
इस तरह सातारा जिला काँग्रेसजनों के बीच अपनी नयी नीति का विवेचन करने के पश्चात् यशवंतरावने २६ जुलाई से ३० जुलाई तक चार दिवसीय दौरे का कार्यक्रम बनाया और सातारा, कोरेगाँव, पुसे सावली, कराड, वाई आदि गाँवों में प्रचंड सभाओं को सम्बोधित किया । उन्होंने अपनी कोरेगाँव सभा में कहा : ''महाराष्ट्र पर मेरा असीम प्रेम है, काँग्रेस के प्रति मेरे मन में अत्यधिक श्रध्दा और निष्ठा है । बम्बई को मैं महाराष्ट्र का स्पंदन समझता हूँ । इन सबसे बढकर भी राष्ट्रीय-ऐक्य मेरे जीवन का अंतिम ध्येय है - जिसके सामने सभी क्रिया-कलाप गौण हैं ।'' कराड की सभा में २०-२५ हजार का जनसमूह ने शांतचित्त से यशवंतराव को सुना, जिनमें विरोधी दलों के लोग तथा असंख्य कृषक-वर्ग था । उस समय हमारे चरित्रनायक की गणना महाराष्ट्र के वादग्रस्त व्यक्ति के रूप में ठौर-ठौर होती थी - लेकिन यशवंतराव अपनी नीति से जरा भी चलित न हुए । वे निर्भय वृत्ति एवं दृढ मनोबल के सहारे अपनी नीति का विवेचन करते गये । यशवंतराव के इस दौरे से प्रोत्साहित हो, अन्य काँग्रेसजन भी हाथ-पाँव हिलाने लगे । समिति के असत्य प्रचार का खंडन करने लगे । उत्तर सातारा, दक्षिण सातारा, सोलापूर और पूना जिले के काँग्रेसजन जनता को काँग्रेस की नीति का पयपान कराने हेतु दौरे करने लगे ।