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यशवंतरावजी चव्हाण व्यक्ति और कार्य -३६

इधर महाराष्ट्र प्रदेश काँग्रेस की १८ जनवरी १९५६ की सामान्य सभा में काँग्रेस विधायकों के त्याग पत्र का प्रश्न लेकर अच्छी खासी खडाजंगी हुई । श्री काकासाहब गाडगील और श्री हिरे त्यागपत्र देने के पक्ष में थे ताकि काँग्रेस श्रेष्ठि वर्ग अपने निर्णय का पुनर्विचार करने के लिए बाह्य होवे--यह उनकी आंतरिक इच्छा थी; जब कि त्यागपत्र से संयुक्त महाराष्ट्र का प्रश्न हल न होगा बल्कि महाराष्ट्रीय जनता के बारे में अन्य लोगों में भ्रम पैदा हो जायगा यह यशवंतराव की मान्यता थी । फिर भी दल की एकता को अंत तक टिकाये रखने के लिये उन्हें विवश होकर श्री मोरारजी देसाई के पास अपना मंत्रीपद का त्यागपत्र देना पडा । केन्द्रीय मंत्री श्री देशमुख और श्री पाटसकर ने भी त्यागपत्र दिये । लेकिन बम्बई राज्य के श्री तपासे और नायक-निम्बालकर मंत्रीद्वय ने अपने स्थानसे त्यागपत्र न देकर दल का आदेशभंग किया । काँग्रेस कार्यसमितिने अपने २३ जनवरी के प्रस्तावानुसार त्यागपत्र वापस लेने की अपील की । उस पर विचार करने के लिए महाराष्ट्र प्रदेश काँग्रेस की सामान्य सभा पूना में २८ जनवरी को हुई । इस बैठक के अनुसार संयुक्त महाराष्ट्र परिषद की कार्यसमिति पर रहे समस्त काँग्रेसियों को त्यागपत्र देने का आदेश दिया गया । इसी समय श्री शंकरराव देवने पूना से एक विज्ञप्ति निकाल कर संयुक्त महाराष्ट्र परिषद विसर्जित करने की घोषणा की । साथ ही उन्होंने सांगली में भाषण करते हुए यशवंतराव की नीति का पूर्णरूप से समर्थन किया ।

भाषाई प्रश्न को लेकर जनता ने अपनी मुक्तिदाता काँग्रेस से ही विद्रोह कर दिया । जिन नेताओं को सन् बयालीस के आंदोलन में जनता सिर पर बैठा नाची थी - उन्हीं पर अंडे फेंके गये । चप्पल और पत्थर फेंक कर उन्हें अपमानित किया । उस समय यशवंतराव जहाँ जहाँ गये उनके साथ असभ्य बर्ताव किया गया । २१ मार्च के दिन पूनामें श्री भाऊसाहब हिरे विरुद्ध प्रचंड निर्देशन हुए । दूसरे दिन प्रदेशाध्यक्ष श्री देवगिरीकर को सोलापुर में कटु अनुभव आया । असंतोष की भावना मानस-पंख पर सवार होकर दावानल की तरह सर्वत्र फैल गई थी । इसमें महाराष्ट्र का कोना कोना घू-घू जल रहा था । हालाँकि महाराष्ट्र काँग्रेस के वरिष्ठ नेता अपनी सभाओंमें संयुक्त महाराष्ट्र का ही जोर-शोर से प्रतिपादन कर रहे थे । पर उनका मार्ग अलग था । विरोधी-दलों के शंभु मेले का संगठित रूप संयुक्त महाराष्ट्र समिति अपने तौर-तरीकों से मतभेद रखनेवालों को बदनाम करने पर तुली हुई थी । जनतंत्र के जमाने में विरोधी विचार-धारा के प्रचारकों को भी अपना मत व्यक्त करने का संविधान द्वारा मूलभूत अधिकार प्राप्‍त है । लेकिन यहाँ तो समितिवाले संयुक्त महाराष्ट्र की आडमें काँग्रेस की जड मूल से उच्छेदन करने में लगे हुए थे । ११ मार्च १९५६ के दिन पूज्य विनोबा को पुनः कहना पडा : ''बेशक बम्बई पर महाराष्ट्र का अग्रहक्क है । लेकिन उसका निर्णय गुजरात पर छोड दो । इस तरह का हिंसक आन्दोलन देश के लिये अच्छा नहीं ।'' समिति के शंभु मेले के अग्रणी श्री एस. एम. जोशी के प्रजा-समाजवादी दल की राष्ट्रीय कार्य समिति ने महाराष्ट्र की विस्फोटक परिस्थिति का आकलन करते हुए आदेश दिया कि सत्याग्रह की कतइ आवश्यकता नहीं है । खुद श्री जयप्रकाश नारायण ने भी समिति समर्थक आन्दोलन का स्पष्ट शब्दों में निषेध किया - पर राष्ट्रीय नेताओं के आदेश की किसीने परवाह न की और दिन-ब-दिन परिस्थिति बिगडने लगी ।

समिति के आन्दोलन को सबसे पहला तडाका कराडमें पडा । कराड के संयुक्त महाराष्ट्रवादी वकील-वर्ग ने स्थानीय नगरपालिका के सदस्यों से त्यागपत्र की माँग करने के हेतु जुलूस निकालनेकी योजना बनाई । इसके पूर्व नगराध्यक्ष श्री पी. डी. पाटील और यशवंतराव की प्रेतयात्रा निकाल कर नगरपालिका के प्रांगण में उसका सार्वजनिक रूपसे दहन किया था । महाराष्ट्र की सभी स्वायत्त शासन संस्थाओं के निर्वाचित सदस्यों ने अपने अपने त्यागपत्र दे दिये थे । लेकिन कराड की स्थिति इससे ठीक उलटी थी । यहाँ पर किसीने त्यागपत्र नहीं दिया था । उन पर किसी प्रकार की आँच न आने पावे-अतः कराड के नागरिकोंने 'शांतिमोर्चा' संगठित किया था । उनका नारा था 'त्यागपत्र न दो', 'अन्याय का डट कर सामना करो ।' परिणाम यह आया कि जुलूस-योजना रद्द होगई ।

संयुक्त महाराष्ट्र के प्रश्न पर स्वायत्तशासन संस्थाओंके प्रतिनिधियों के त्याग-पत्र देने पर रिक्त हुए स्थानों के उपचुनाव कराये जाएँ तो आनेवाले प्रतिनिधि अपने पूर्वगामियों का ही अनुशरण करेंगे और पुनः वही स्थिति पैदा होगी । इन सब झंझटों से बचने के लिए चुनाव स्थगित करने का मन ही मन निश्चय कर यशवंतरावने ३१ जुलै ५७ तक ऐसे चुनाव स्थगित करनेवाले विधेयक की टीका का प्रत्युत्तर देते हुए कहा : ''विरोधी दल के सदस्यों के जितना ही मैं भी महाराष्ट्रीयन हूँ । लेकिन भेद केवल इतना है कि मैं एक बुद्धिमान हूँ महाराष्ट्रीयन हूँ । भाषाई राज्य-रचना का प्रश्न किसी प्रकार के आन्दोलन, हडताल या निर्देशनों से हल नहीं होगा बल्कि पारस्परिक स्नेह, सौहदिपूर्ण वातावरण एवं समझौतावादी वृत्ति से ही हल होगा ऐसी मेरी दृढ मान्यता है । महाराष्ट्र प्रदेश काँग्रेस में मैंने त्याग-पत्र प्रस्ताव का समर्थन किया था । अतः मेरे विद्वान् मित्र श्री अमुल देसाई ने मेरी कटु आलोचना कर कुछ आरोप भी किये । लेकिन वह प्रस्ताव सरकार के साथ असहयोग करने की मनोवृत्ति से जन्मा न था; ठीक वैसे ही उसमें हमने अपने नेताओं के प्रति अविश्वास की भावना दर्शायी न थी बल्कि विश्वास ही प्रदर्शित किया था ।''