यह सूक्ति यहाँ चरितार्थ हुई । इसी दौरानमें ज्येष्ठ बन्धु ज्ञानोबा की रीढ की हड्डी में कुछ बिगाड होगया । डॉक्टर ने शल्यक्रिया की सलाह दी । तदनुसार शल्यक्रिया की गई, पर उसीमें उनकी मृत्यु होगई । सबको आकाश फटे-सा आघात लगा । धीरज बंधानेवाला पुरुष आधार कोई न रहा । जिसने उन्हें ममता और स्नेह से पाला-पोसा । पिताजी की कभी याद न आने दी । उस देवतातुल्य बन्धु की बीमारी में सेवा-शुश्रूषा तो क्या लेकिन उसके अंतिम दर्शन करने का भी योग न आया - यह व्यथा-पीडा दीर्घावधि तक यशवंतराव के मनको खाती रही । ज्ञानदेव की मृत्यु का जबरदस्त आघात अगर किसी को पहुँचा हो, तो वह उनकी वृद्धा माता विठाबाई को । फिर भी वह वीरमाता मुँह से उफ तक न बोली और सभी को सांत्वन देने में निमग्न हो गई । यशवंतराव के लिए अब माता का ही आधार शेष रह गया था ।
देश की राजनीति में सुधार होनेके चिन्ह दिखाई दे रह थे । विपत्ति के बादल छंट गये थे । महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई, मौलाना अबुल कलाम-से दिग्गज जननेताओं को ब्रिटिश-सरकारने मुक्त कर दिया था । इंग्लंड में नव-निर्वाचन हो कर लॉर्ड एटली के नेतृत्व में मजदूर-दल शासनारूढ हो गया था । पहले से ही मजदूर-दल का झुकाव भारत को स्वतंत्रता प्रदान करने की ओर था । उसने तत्कालीन भारतमंत्री लॉर्ड पेथिक लारेन्स की अध्यक्षता में 'त्रिमंत्री मिशन' भारत भेजा था । कारागृह में बन्द कार्यकर्ताओं की रिहाई की जा रही थी । तदनुसार सन् १९४५ में यशवंतराव की भी रिहाई हुई । सन् १९४६ के सार्वजनिक निर्वाचन में बम्बई इलाके में स्वर्गीय बालासाहेब खेर के नेतृत्व में काँग्रेस मंत्रीमंडल गठित हुआ, जिसमें यशवंतराव की नियुक्ति उपगृहमंत्री के रूपमें हुई । उनका पारिवारिक जीवन तिमिराच्छन्न वातावरण में से प्रखर प्रकाश में परिवर्तित हो रहा था । घोर तपश्चर्या का फल मिल रहा था । राष्ट्र स्वाधीन हो चुका था । अब तो भारत के शिशु-जनतंत्र का संवर्धन, संरक्षण और संघटन करना ही काम रह गया । दुःख, पीडा, यातना और आपत्तियों की घनघोर रात्रि कट चुकी थी--सुख, शांति, समृद्धि और प्रगति की सुनहरी उषा फूट रही थी । लेकिन यशवंतराव की मुश्किलियाँ कम न हुईं । जेल में रहने पर जो आघात सुश्री वेणुताई को पहूँचा था और जिसके कारण वह प्रायः बीमार हो जाया करती थी उसने अब भी पीछा न छोडा । यशवंतराव के लिए घर और कार्यालय एक हो गया था । राजकीय कार्य के लिए दौरे पर जाने का जब कभी अवसर आता तब उनका सारा ध्यान घर की ओर ही लगा रहता था । बडे से बडे डॉक्टरों के इलाज शुरू थे अतः उन्हें चिंता जैसा नहीं लगता था । इस तरह जीवनमें धूपछाँव का अनुभव करते एकाध-दो वर्ष व्यतीत होगये । इतनेमें अचानक ज्येष्ठ बंधु गणपतराव क्षय के शिकार होगये । रोगका निदान कर चिकित्सा करानेमें कोई कसर उठा न रखी । पर रात-दिन धंधे-रोजगार में लगे रहने के कारण और कराड नगरपालिका के अध्यक्ष की हैसियत से अधिकाधिक कार्यव्यस्तता से उनका स्वास्थ्य सुधारने के बजाय और गिरने लगा । फल यह हुआ कि सन् १९४८ में चव्हाण-परिवार का आधारस्तंभ और यशवंतराव का मुख्य आधार टूट गया । गणपतराव की मृत्यु होगई ।
गणपतराव की बीमारी में रात-दिन सेवाशुश्रूषा में रत सुश्री वेणुताई भी कालांतर से क्षय की भोग बन गई । सामान्य बीमारी है - अच्छी होजायगी इसी गडबड और असावधानी में बीमार की स्थिति बिगडने लगी । हड्डियाँ निकल आई । उठने-बैठने में तकलीफ होने लगी । डॉक्टरोंने जवाब दे दिया बीमारी आखिरी छोर पर पहूँच चुकी थी । बचने की कोई उम्मिद न थी । विठाबाई की आंतरिक वेदना का पारावार न था । लेकिन यशवंतराव निराश न हुए । उन्होंने अपने परिचित डॉक्टरों से विचार-विमर्श कर सुश्री वेणुताई को मिरज अस्पताल में दाखिल करने का निश्चय किया । मिरज अस्पताल के प्रधान-चिकित्सक डॉक्टर जोन्सने रोगी का सावधानी से परीक्षण कर कहा : ''स्थिति काफी गम्भीर है । मैं निश्चित कुछ नहीं कह सकता फिर भी आप इसे यहाँ छोड जाइए । मैं पंद्रह दिन तक औषधोपचार कर अपना निश्चित मत व्यक्त करूंगा ।'' डॉक्टर जोन्स की बात सुन कर सगे-सम्बंधियों की घबराहट बढ गई । उनके पैरों तले से जमीन खिसक गई । लेकिन यशवंत मेरु-गंभीर बने रहे । उन्होंने सुश्री वेणुताई को स्नेहसिक्त वाणीमें आश्वासन के दो शब्द कहते हुए कहा : ''चिंता की कोई बात नहीं, तुम अच्छी हो जाओगी ।'' और पंद्रह दिन के बाद लौटने का वादा कर सरकारी काम से राज्य-व्यापी दौरे पर निकल पडे । वेणुताई मन ही मन समझ गई थी कि अब उसकी अंतिम घडी निकट है । पर उन्हें अपने पति के आश्वासन में अटूट श्रद्धा थी । पंद्रह दिन के बाद यशवंतराव लौटे और डॉक्टर जोन्स से मिले । डॉक्टर ने बताया कि मरीज खतरे से बाहर है । चिंतित होने की कोई आवश्यकता नहीं । यशवंतराव की बाँछे खिल गई ।
स्व. ज्येष्ठ बन्धु ज्ञानदेव और गणपतराव की जब कोई स्मृति दिलाते हैं तब यशवंतराव का कंठ अवरुद्ध हो जाता है । चेहरे पर एक प्रकार की खिन्नता छा जाती है । और वे शोकविव्हल हो कहते सुने जाते हैं कि वे दोनों मेरे जीवन के मुख्याध्यार थे । उन्होंने मेरा लालन-पालन किया, मुझे पढाया-लिखाया । मेरा संवर्धन और संरक्षण किया । लेकिन जिनके प्रयत्नों से मैं बम्बई राज्य का मुख्य मंत्री बना, उन्नति के शिखर पर जा चढा उसे देखने के लिए उन दोनों में से एक भी जीवित न बचा ।