सन् १९३८ से ५० तक यशवंतराव का जब कभी पूनामें आगमन होता वे अपने मित्र और मराठी के सफल प्रकाशक श्री दयार्णव कोपर्डेकरके यहाँ ही उतरते थे । इससे उनके नये मित्र प्रायः नाराज रहते थे और यह जानने की कोशिश करते थे कि वह है कौन, जिसके यहाँ वे हमारा अत्याग्रह छोड कर भी उतरते हैं । एक बार इसी तरह भूतपूर्व विधायक श्री बाबासाहब घोरपडेने यशवंतराव को अपने यहाँ उतरने का नियौता दिया । लेकिन यशवंतराव श्री कोपर्डेकर के यहाँ ही उतरे । और श्री घोरपडे के पूछ-ताछ करने पर वे उन्हें श्री कोपर्डेकर के यहाँ लिवा ले आये और उनका परिचय देते हुए बोले : ''इनके पिता और माता को मैं अपने माता-पिता तुल्य मानता हूँ । और यह मेरा लंगोटिया यार होकर मुझे सगे भाई से भी ज्यादा प्यार करता है । तभी मैं इसके यहाँ उतरना पसंद करता
हूँ ।''
यशवंतराव का निजी-जीवन संदेह से परे और साधन-शुचिता से ओत-प्रोत है इसकी साक्षी उनके कट्टर विरोधक भी देते हैं । विशाल द्विभाषिक के मुख्यमन्त्री के रूपमें बम्बई राज्य की सर्वोच्च सत्ता के सूत्र-संचालक होते हुए भी उन्होंने अपने निजी लाभका कोई कार्य नहीं किया । उनकी आर्थिक स्थिति पहले जैसी थी आज भी वैसी की वैसी बनी हुई है । पीछले दस-बारह वर्ष से लगातार शासन-यंत्रणा से जुडे हुए होने पर भी चार पैसे जमा कर नहीं पाये हैं । उनके स्थान के अनुरूप उन्हें जो वेतन और अन्य सुविधाएँ उपलब्ध हैं इसके उपभोग के अलावा उनके पास कुछ भी नहीं है । उन पर अपने स्वर्गस्थ दोनों ज्येष्ठ बन्धुओं के बच्चोंके लालन पालन और घर-गृहस्थी चलाने की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी हैं, जो वे बडी ही निष्ठा से और अपनेपन से वहन कर रहे हैं । जब कभी कोई मंगल प्रसंग या कार्य आता है तब उन्हें और उनकी धर्मपत्नी सुश्री वेणुताई चव्हाण को सदा बँक से कर्ज निकालना पडता है । और फिर धीरे-धीरे कर्ज की अदायगी होती रहती है ।
यशवंतराव राज्य-प्रशासन पद्धति इतनी तो सुस्पष्ट रखने के लिए सदा प्रयत्नशील रहते हैं कि कभी कभी उनके मित्र भी ऐसा अनुभव करने लगते हैं कि यशवंतराव उन्हें विस्मरण कर गये हैं । लेकिन वास्तव में ऐसी बात नहीं है । वे कोई भी कार्य ऐसा नहीं करते जिसके लिए जन-साधारण और प्रशासनिक-यंत्र के मन में शंका का बीजारोपण हो सके । फिर भले ही उनके मित्र का ही काम क्यों न हों ? अतः ऐसी अपेक्षा रखनेवालों को उनसे निराश होना पडता है ।