सातारा का संघर्ष
हमारा भारत देश सात लाख छोटे-मोटे गाँवों में बिखरा पडा है । कालांतर से विदेशी आक्रमण के कारण शहरों के गाँव बन गये तथा गाँवों की राख ! ऐसे भारत का बहुजन समाज अर्थात् किसान और मजदूर, जिसे दो जून खाना तक नसीब नहीं होता । जो खूनका पसीना कर मार मार मेहनत करता है और बदलेमें पाता है साहूकार, पटवारी और कारिंदों की गालियाँ, बेठ और बेगार उसे अपने बालबच्चों का पेट भरने से ही अवकाश कहाँ कि सत्ता का साझीदार बन सके ।
महाराष्ट्र के कृषक और मजदूर समाज में भी ऐसा वर्ग विद्यमान था, जिसकी जडें महाराष्ट्र के प्रत्येक गाँव में फैली हुई थीं । वह अपने पुराने ऐश्वर्य और जहोजलाली के बल पर जनतंत्र में सिक्का जमाना चाहता था । अतः जब तक काँग्रेस की प्रवृत्तियाँ रचनात्मक कार्य की ओर थी तब तक वह काँग्रेस के प्रति बिलकुल उदासीन था । लेकिन जब उसने देखा कि अब तो काँग्रेस के हाथ में शासन-सत्ता की बागडोर आनेवाली है तब वह एडी का पसीना चोटी तक लाकर संगठित रूप से काँग्रेस पर अपना नियंत्रण प्रस्थापित करने में लग गया और जहाँ उसे अपने कार्य में असफलता मिली वहाँ वह काँग्रेस का विरोध करने के लिए नाना रूप धारण कर कमर कस कर खडा हो गया ।
यशवंतराव की दूरदर्शी दृष्टि और पैनी बुद्धिने इस गुटकी योजना को भली-भाँति समय लिया और अपनी बाँकी कुटनीति से कभी उनसे सहयोग किया तो कभी उनसे दो-दो हाथ भी किये । लेकिन अपनी ध्येय-प्राप्ति से एक कदम भी पीछे न हटे और उन्होंने एक विशुद्ध नेतृत्व-शक्ति संगठित की । सातारा जिले को पुरोगामी दृष्टिकोण और शक्तिशाली बनाते हुए यशवंतरावने भूल कर भी कभी सत्ता-स्थान ग्रहण करने का मोह न बताया । बल्कि सत्ता से वे सदैव अलिप्त ही रहे । यशवंतरावने शैशव से ही स्वाधीनता-आन्दोलन से सम्बन्ध जोड रखे थे । उन्होंने बडे-बडे नेताओं को नजदीक से देखा था और उनके विभिन्न विचार-प्रवाहों को मथन कर आत्मसात् किया था । अतः राजनीति की बारीकियाँ और जनतंत्रीय जीवन तथा उसके तत्वज्ञान को अच्छी तरह जान लिया था । फलतः दैनंदिन राजनीति के प्रवाह, सामाजिक परिस्थिति और उससे जन-समाज पर होनेवाले परिणाम का आकलन कर, परस्पर विरोधी नेतृत्व में से ही जनतंत्रीय विचार-धारा का प्रचारक, प्रखर संदेशवाहक युगवीर पैदा करना था । यह सब होने पर भी उनका कार्यक्षेत्र अभी सीमित था । वे सातारा जिले में ही अभी उत्साही कार्यकर्ता के रूपमें प्रसिद्ध थे ।
सातारा जिले का सन् १९३७ का समय यानी कूपरशाही की सर्वतोमुखी प्रगति का काल था । सातारा जिलेकी कूपरशाही, मुठ्ठी भर सत्तालोलुप धनिक वर्ग का ही दूसरा स्वरूप था । इसके नेता थे सातारा जिले के उस समय के प्रसिद्ध कारखानदार सर धनजीशाह कूपर । सातारा रोड पर उनका अपना जंगी लोहे और इस्पात का कारखाना था । सारे जिले की शराब की ठेकेदारी श्री कूपर के पास ही थी । अतुल संपत्ति, बडा व्यापार और सरकार-दरबार में भारी प्रतिष्ठा आदि विपुल साधनों से संपन्न सर कूपर एक बुद्धिमान और महत्वाकांक्षी सज्जन थे । उन्होंने स्थानीय परिस्थिति का अचूक निदान निकालकर बडी खूबी से सातारा जिले की राजनीतिक-प्रवृत्तियों का सूत्र-संचालन अपने हाथ में रखा था । उस समय जिले की राजकीय सत्ता का सर्वोच्च केन्द्रबिन्दु यानी लोकल बोर्ड का अध्यक्षपद ! श्री कुपर स्वयं सातारा लोकल बोर्ड के अध्यक्ष बनने का सम्मान प्राप्त कर चुके थे और अब प्रादेशिक राजनीति में दिलचस्पी लेने लगे थे । उन्होंने कराड तहसील के एक प्रतिष्ठित व्यापारी रावसाहब कल्याणी को जिला-बोर्ड का अध्यक्ष बनाकर जिले का सूत्र-संचालन अपने हाथ में ले रखा था । सन् १९३७ में श्री कूपर ने बम्बई राज्य के अस्थायी मंत्रीमंडलका नेतृत्व भी किया था । इस पर से उनकी प्रचंड शक्ति और कार्यदक्षता का पता अच्छी तरह लग सकता है । ऐसी प्रचंड शक्ति से यशवंतराव को लोहा लेना था ।
जिस तरह काँग्रेसके बाहर ऐसा वर्ग मौजुद था उसी तरह काँग्रेसान्तर्गत भी ऐसा एक गुट था, जो यशवंतराव का विरोधी था । यशवंतरावने भी अपनी विचार-धाराके समर्थक और समाजवादी दृष्टिकोण को जनहित का अंतिम ध्येय मानने वाले युवक कार्यकर्ताओं का एक गुट तैयार किया था । उसके अगुआ थे श्री आत्माराम पाटील । 'सीधे-साधे किसान और मजदूर-वर्ग के प्रतिनिधी को विधान सभा का टिकिट मिलना चाहिए' इस निर्धार के साथ यशवंतराव और उनके साथियोंने श्री आत्माराम पाटील का नाम निश्चित किया । काफी वाद-विवाद के पश्चात् यशवंतराव की बात मानली गई । पर गरीब बिचारा किसान काँग्रेस उम्मिदवार बन जाने पर भी धनाभाव में चुनाव-खर्च कहाँ से लाता ? कार्यकर्ताओं की निराशा का पारावार न रहा । फिर भी यशवंतरावने हिम्मत न हारी । सातारा जिले के छोटे-बडे सभी गाँवोंका कार्यकर्ताओं ने कंधे पर तिरंगा निशान उठाये, काँग्रेस का संदेश घर-घर पहूँचाते दौरा किया । इन सारी प्रवृत्तियों के पीछे यशवंतराव का सुदृढ मार्गदर्शन काम कर रहा था । उस समय उन्होंने 'लोक क्रांति' नामक एक साप्ताहिक भी बडे घडल्लेसे चलाया था जिसका सारा काम वे खुद ही देखते थे । काँग्रेस के धनिक-वर्ग की उन्हें रत्ती भी सहानुभूति न मिली । पर वे निराश न हुए । एक घटना तो ऐसी घटित हुई जिससे उन्हें सख्त आघात पहूँचा । लेकिन अपने कार्यसे जरा भी विचलित न हुए और अथक प्रयत्न कर श्री आत्माराम पाटील को विजयी बनाया ।