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यशवंतरावजी चव्हाण व्यक्ति और कार्य -१४

स्थानीय परिस्थितिका अचूक अन्दाजा लगाना, योग्य व्यक्तियोंका चुनाव, किसका कितना और कैसा उपयोग करना आदिका निश्चित अंदाज बाँधना, निस्पृह-वृत्ति, कार्यके प्रति लगन, दृढ आत्मबल और उत्तरदायित्वका ज्ञान, आदि विविध गुण ही यशवंतरावकी आजकी पदोन्नति - उनको प्राप्‍त विशिष्ट स्थानकी कुंजी है । उनके विषयमें यह कहा जाय तो अतिशयोक्ति न होगी : ''अपने ध्येयकी पूर्तिके लिए आवश्यक लगन और धीरज दोनोंका उनमें अद्‍भुत समावेश हैं और इसीके परिणामस्वरूप संकटापन्न स्थितिमें भी योग्य मार्गदर्शन का अवलम्बनकर वे प्रगति, वैभव, यशके शिखर पर विराजमान हैं ।''

एक बार किसी पंडित मित्रने यशवंतरावसे प्रश्न किया, ''यशवंतराव ! आपकी कुशाग्र बुद्धिका चोटीके विद्वानों पर सिक्का जम गया हैं । फिर भी उनके मनमें आपके प्रति तनिक भी प्रेमकी भावना नहीं है ?'' मित्रके प्रश्नके पीछे किसीके प्रति द्वेष या दोषकी भावना न थी । सीधा-सादा था प्रश्न उसका । उसकी दृढ मान्यता थी कि राजनीतिमें यशवंतरावका नेतृत्व बुद्धिप्रामाण्य की कसौटी पर कसकर यशस्वी होनेवाला है और ऐसे यशस्वी नेतृत्वके पीछे बुद्धिवादी मध्यम-वर्ग खडा न रहा तो यशवंतरावको सफल होनेमें जरा तकलीफ होगी साथ ही बुद्धिवादी वर्गको नुकसान ! लेकिन यशवंतरावका प्रत्युत्तर एकदम स्पष्ट और सरल था : ''विद्वत् वर्गको प्रायः ऐसा लगता है कि दूसरोंको उनके चरणमें बैठकर आशीर्वाद लेना चाहिए । लेकिन मैंने अपने जीवनमें यों आशीर्वाद लेना कभी सीखा नहीं है । किसीके बारेमें मैं कभी पूर्वग्रहदूषित मत नहीं बनाता और कभी मेरी गलती हो जाय तो परस्पर विचार विनिमयकर मैं उसे सुधार लेता हूँ । मेरे संदेशके रूपमें ही सही उनसे कहें कि मैं किसीके चरणोंमें बैठकर आशीर्वाद लेनेका आदी नहीं लेकिन एक बैठकमें बैठ, खुले हृदय किसी भी विषय पर चर्चा करनेके लिए सदैव तैयार हूँ ।'' ये शब्द उस समयके हैं जब वे राज्यके मुख्य मंत्री भी नहीं थे । लेकिन कितने सूचक और मार्मिक हैं - इसका अन्दाज तो पाठक स्वयं ही लगा सकता है ।

यशवंतरावके गुण-गौरवकी बातें जब कभी होती हैं, लोग उनका अभिनंदन करते हैं, उनकी कर्तव्यदक्षता और कार्यकुशलताके गुण गाते हैं । उनमें ध्येयनिष्ठा, समन्वयशक्ति, संतुलन बुद्धि, विवेकी दृष्टि और निश्चय भावनाकी प्रशंसा करते नहीं अघाते और उनके प्रगति तथा उन्नतिका रहस्य जाननेकी कोशिश करते हैं । तब वे प्रायः अपने मित्रमंडलमें गद्‍गद् हो, कहते सुने गये हैं कि महात्मा फुले और छत्रपति शाहू महाराज मेरे जीवन-चक्रकी धुरी हैं । उन्हीं की बदौलत मैं जो कुछ आज हूँ बन सका । मैंने उनसे ही कार्य करनेकी शक्ति और प्रेरणा ग्रहण की है । अगर वे नहीं होते तो मैं किसी रँहट पर बैलोंके पीछे होता या किसी कल-कारखानेमें मशीनसे सिरपच्ची करता दिखाई देता । ठीक वैसे ही प्रशासनिक प्राविण्य प्राप्‍त करनेके पीछे भारतके वित्तमंत्री और तत्कालीन बम्बई राज्यीय मंत्रीमंडलके वरिष्ठ सदस्य श्री मोरारजीभाईका योग्य मार्गदर्शन ही काम आया है ।

यशवंतरावका इतिहासकी ओर देखनेका दृष्टिकोण भी अलग है । वे ऐतिहासिक घटनाओंका विहंगावलोकन करते हुए उनमें रहे तथ्योंसे स्फूर्ति और मार्गदर्शन प्राप्‍त करते हैं । इतिहासको वे मरे मुर्दे उखाडना या केवल पुनरावृत्तिके थोथे हिसाबके रूपमें नहीं लेते बल्कि इतिहासको अपना परम सहयोगी मानते हैं । इतिहास कल घटा था, आज घट रहा है और कल घटित होगा - ऐसी उनकी उत्क्रान्तिकारी अटल अचल श्रध्दा है । परिणामस्वरूप ऐतिहासिक तथ्योंको मद्दे नजर रख कर नया इतिहास निर्माण करनेका महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व हमारे कंधों पर हैं और हमें उसे स्वीकारकर योग्य न्याय देना चाहिए ऐसी महत्वाकांक्षा और आत्मविश्वास उनमें कूट-कूट कर भरा पडा है । इसीलिये मुश्किलसे मुश्किल कार्यकी जिम्मेदारी वे हँसते हँसते उठाते हैं और उसे आनन-फाननमें सफलकर दिखाते हैं ।