दि्वभाषिक का प्रयोग
१६ अक्तूबर १९५६ का दिन यशवंतराव के जीवन में सुनहरा सिद्ध हुआ । विशाल द्विभाषिक की नौका कुशलतापूर्वक पार लगाने के लिए योग्य और कर्तव्यदक्ष केवट की आवश्यकता थी, जो राजनीतिक भंवरों से बचा कर मंझिल की ओर ले जाने में सफल हो सके । और ऐसा सुकानी वर्तमान मुख्य मंत्री श्री मोरारजी देसाई के अलावा दूसरा हो ही नहीं सकते थे । अतः बम्बई, महाराष्ट्र, मराठवाडा, विदर्भ, कच्छ, सौराष्ट्र, गुजरात एवं महाराष्ट्र के काँग्रेस विधायिकों की संयुक्त बैठक सर्वसम्मति से उन्हें ही काँग्रेस विधायिका-नेता के रूपमें चुननेवाली थी । लेकिन ऐन मौके पर अजीब उलझन पैदा हो गई । श्री भाऊसाहब हिरे ने पक्षनेता के चुनावमें श्री देसाई की प्रतिस्पर्धा करने की घोषणा की । इधर श्री मोरारजीने घोषित किया कि वे सर्वसम्मति से निर्वाचित होना पसंद करेंगे । श्री हिरे को विविध प्रकारसे समझाया गया लेकिन वे अंत तक अपने निश्चय से टस से मस न हुए । परिणाम यह हुआ कि श्री हिरे के प्रतिस्पर्धी के रूपमें बहुसंख्यक विधायकोंने हमारे चरित्रनायक को श्री मोरारजी देसाई के आशीर्वाद के साथ खडा किया । मतदान संपन्न हुआ और यशवंतराव ३३३ विधायकों का समर्थन पा, विधायिका काँग्रेस दल के नेता के रूप में चुने गये । और इस तरह कम उम्रमें ही भारतके सबसे बडे और प्रगत राज्य के मुख्य मंत्री बनने का सौभाग्य प्राप्त किया ।
यशवंतराव का मुख्य मंत्री के रूपमें निर्वाचन होने पर उनका सार्वजनिक अभिनंदन करने का प्रथमावसर बम्बई डक मजदूर संघ को मिला । बम्बई के मजदूर-जगत में यशवंतराव के मुख्य मंत्री चुने जाने पर प्रसन्नता की लहर फैल गई थी; किसान-वर्ग तो मानों खुद ही को रावपद मिला हो इस खुशी से पागल हो रहे थे । महाराष्ट्र प्रदेश काँग्रेस द्वारा २१ अक्तूबर को पूना में आयोजित समारोह का अभिनंदन स्वीकार करते हुए उन्होंने गद्गद् कंठ से कहा : ''यह स्वागत मेरा न हो कर मैं जिस बलशाली और जनतंत्र की वाहक काँग्रेस संस्था है उसका है । अगले छह-सात महीनों में हमें विकट और उलझनमय परिस्थिति का सामना करना है । द्विभाषिक यह काँग्रेस श्रेष्ठि वर्ग और संसद द्वारा महाराष्ट्र को दिया गया चुनौती है जिसे स्वीकार कर हमें सफल कर बनाना है ।'' इससे यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि अन्य काँग्रेसजनों की भाँति वे भावना के बहाव में अपना संतुलन खोनेवाले न थे बल्कि जो निर्णय लिया है उसे जीवन के अंतिम क्षणों तक निष्ठापूर्वक निभाने में ही मानव जीवन का साफल्य समझते थे । अपने पर पडी नई जिम्मेदारी को पूर्ण करने के लिए संगी-संगाथियों से अपील करते हुए उन्होंने आगे कहा कि मुझे तुम्हारे सहयोग की आवश्यकता है - जो बुजुर्ग हैं वे अपनी शुभाशिष दें, समवयस्क हैं वे सहयोग दें, और जो छोटे हैं वे शुभेच्छा प्रकट करें । आज के युग में 'विना सहकार नहीं उध्दार' वाली सूक्ति ठीक ठीक उतरती है । जनसेवा का अमोघ साधन सत्ता है और मैं उसी दृष्टिकोण से उसके प्रति देखता हूँ ।
बम्बई में २८ अक्तूबर के दिन सातारा जिले के सर्वदलीय मजदूरों ने 'अपने जिले के लौहपुरुष' का बडी ही सजधज के साथ स्वागत किया, जिसे अनुभव कर यशवंतराव का कंठ अवरुद्ध हो उठा । उन्होंने प्रत्युत्तर में कहा : ''मेरे कार्यालय के द्वार हर किसी के लिए चौबीस घंटे खुले हैं । मैं सामान्य किसान का पुत्र आज बम्बई जैसे भारत के प्रथम पंक्ति के राज्य का मुख्य मंत्री बन पाया हूँ अर्थात् अब वे दिन लद गये, जब मुठ्ठीभर बुद्धिवादी वर्ग अपने निहित स्वार्थ के लिए बहुजन समाज पर नाजायज हुकूमत करता था । बल्कि अब सही अर्थ में समाजवादी विचारधारा प्रशासन में अपना योग्य स्थान बनाने जा रही है । मेरे पर जो उत्तरदायित्व डाला गया है वह निजी अथवा वैयक्तिक गुणानुबंध के कारण नहीं बल्कि ईसवी सन् १९२०-३० में जो नई शक्तिशाली पीढी जन्मी उस पीढीका मैं प्रतिनिधि हूँ अतः उत्तरदायित्व डाला गया है । शैक्षणिक चाह, जनजागृति, स्वस्थ राष्ट्रीयत्व का उदय, आर्थिक एवं सामाजिक न्याय की जानकारी आदि बातों का वेग से गाँवों में प्रचार और प्रसार हुआ । उसी वातावरण में से इस नई शक्ति का भी उदय हुआ । अगर यह शक्ति कार्यक्षम और सतत जागृत रही तो मुझे यश मिलेगा । अतः उस शक्ति का संवर्धन करने के लिए तुम्हें हमेशा सजग प्रहरी की भाँति आँखों में अंजन डाले तैयार रहना चाहिए ।''