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यशवंतरावजी चव्हाण व्यक्ति और कार्य -४४

संयुक्त महाराष्ट्र की माँग के आडमें विरोधी दल अपना शिकार खेलना चाहते थे । उसमें भी साम्यवादी दल विशेष रूपसे प्रयत्‍नशील था । वह हडताल, निर्देशन, और जन-मोर्चों के सहारे अपना उल्लु सीधा करनेमें अन्य दलोंके साथ जुटा हुआ था । और इधर शंकरराव देव आत्मक्लेष का मार्ग को अपना कर सत्याग्रह का अवलम्बन कर, निर्देशन और त्यागपत्रों को साधन बना संयुक्त महाराष्ट्र का स्वप्न साकार करना चाहते थे । देश के हालात देखते हुए काँग्रेस की नीति से इनके मार्ग भिन्न थे; अतः यशवंतराव इन दोनोंही नीतियोंसे असंतुष्ट थे । वे वामपक्षियों से मोर्चा लेने में आगेपीछे हटनेवाले न थे । लेकिन शंकरराव जैसे दिग्गज नेता का विरोध कैसे किया जाय ? और अगर विरोध न करें तो महाराष्ट्र में काँग्रेस-दल का भविष्य अंधकारमय बनने जा रहा था । अतः १ दिसम्बर १९५५ को फलटण में सातारा जिला काँग्रेस की होनेवाली सभा के एक सप्ताह पूर्व यशवंतरावने श्री शंकरराव देव को पत्र लिखकर अनुरोध किया कि अगर आप त्यागपत्र, भूख हडताल आदि की बातें करते हों तो काँग्रेस के नाम पर न करें । क्योंकि यशवंतराव की दृढ मान्यता थी कि हडताल, त्यागपत्र और निर्देशन संयुक्त महाराष्ट्र प्राप्‍त करनेके सही मार्ग नहीं हैं । बल्कि इन तरीकों का अवलम्बन करने से राष्ट्रीय ऐक्य भंग होने के साथ साथ संयुक्त महाराष्ट्र की आशा भी घुमिल होते देर न लगेगी । इस प्रकार का एक प्रस्ताव फलटण में पारित करवा कर उन्होंने अपनी नीति का पुररुच्चार किया । फलटण-प्रस्ताव ने महाराष्ट्र काँग्रेस तथा विरोधी दलों में अणुबम गिरने जैसी स्थिति पैदा कर दी । अखबारवालों ने इसी प्रश्न को लेकर तिल का ताड बना लिया । उन पर नाना प्रकार के आक्षेप किये गये । बम्बई के कुछ अखबारोंने यशवंतराव को विश्वासघाती सिद्ध करने का जोरदार प्रयत्‍न किया । पर वे अपनी नीतिसे जरा भी विचलित न हुए । फलटण में घोषित नीतिका विशद विवेचन करते हुए यशवंतरावने पी. टी. आय. के संवाददाता को एक भेंट में बताया कि बम्बई के मसले पर अखिल भारतीय काँग्रेस जो नीति अपनायेगी और अंतिम निर्णय लेगी उसे मैं शिरोधार्य करूँगा । अगर कोई मेरे सामने पंडित नेहरू और संयुक्त महाराष्ट्र को खडा कर दोनों में से किसी एक को चुनने को कहे तो मैं निःसंदेह पंडित नेहरू को ही चुनूँगा । क्योंकि पंडित नेहरू हमारे देश की आत्मा हैं । वे हमारी समता, शील, शक्ति और राष्ट्रीय ऐक्य के ज्वलंत प्रतीक, हमें आजादी दिलानेवाले राष्ट्रपिता पूज्य बापू के महान् उत्तराधिकारी और दीन-दुखियों के अनन्य सेवक हैं ! उन्होंने नेहरूजी के नाम पर जो निष्ठा व्यक्त की थी वह व्यक्ति नेहरू के प्रति नहीं बल्कि नेहरूजी की राजकीय विचारधारा के प्रति की थी । नेहरूजी का नाम तो महज अनपढ जनता को समझाने के लिये लिया था । शेष वह निष्ठा नेहरूजी की प्रजातंत्रीय प्रणाली के प्रति थी । और ऐसी ही निष्ठा एक बार शंकरराव देव ने भी व्यक्त की : ''संयुक्त महाराष्ट्र के लिए मैं कदापि नहीं लडूँगा । क्योंकि अगर मैं लडूँगा तो मुझे पंडित नेहरू से हाथ धोने पडेंगे । मैं संयुक्त महाराष्ट्र को स्वेच्छ्या त्याग दूँगा पर पंडित नेहरू को किसी भी मूल्य पर हाथ से जाने न दूँगा ।''

श्री शंकरराव देव द्वारा पुरस्कृत विशाल द्विभाषिक, फाजलअल्ली आयोग का संतुलित द्विभाषिक एवं काँग्रेस श्रेष्ठि वर्ग की त्रिराज्य योजना इन तीनों पर्यायों में से यशवंतरावको एक भी पर्याय पसंद न था । लेकिन वर्तमान परिस्थिति का आकलन करते हुए और संयुक्त महाराष्ट्र की ध्येय पूर्ति का निकटस्थ साधन समझकर उन्होंने त्रिराज्य योजना का निःसंदिग्ध समर्थन करनेका निश्चय किया । तदनुसार बम्बई विधान सभा में श्री मोरारजी देसाई द्वारा प्रस्तुत 'त्रि-राज्य रचना' विधेयक से सहमत बनें ।

७ जनवरी १९५६ के दिन दिल्ली में भारत के विधि मंत्री श्री हरिभाऊ पाटसकर के बंगले पर आयोजित खासदारों की बैठकने प्रदीर्घ विचार-विनिमय के बाद राज्य पुनर्गठन आयोग की संतुलित द्विभाषिक योजना के बजाय त्रिराज्य योजना को ही अधिक श्रेयस्कर और सर्व दृष्टि से योग्य समझा । इस तरह यशवंतराव की नीति का सभीने खुलकर समर्थन किया । समग्र परिस्थिति का योग्य मूल्यमापन करते हुए काँग्रेस श्रेष्ठिवर्गने महाराष्ट्र काँग्रेस से और अधिक सलाह-मशविरा करने की आवश्यकता महसूस की । तदनुसार समझौता-वार्ता के समय महाराष्ट्र काँग्रेस के नेताओंने त्रिराज्य योजना में जरा बदल सुझा कर बम्बई शहर की एक अलग इकाई करने के बजाय बम्बई को केंद्रशासित करने की तथा उसे प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की सम्मति से महाराष्ट्र में मिलाने की योजना रखी । लेकिन बम्बई की महत्त्वपूर्ण समस्या को अधिक काल तक स्थगित रख कर तनावपूर्ण वातावरण बनाये रखना पंडितजीने उचित न समझा । परिणाम स्वरूप बम्बई को केंद्रशासित इकाई बनाने का निर्णय कर भारत सरकारने १६ जनवरी ५६ के दिन तत्सबंधी घोषणा की ।