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यशवंतरावजी चव्हाण व्यक्ति और कार्य -३१

किसी भी देश की समृद्धि, प्रगति और उन्नति के लिए प्रशासनिक-ढाँचे के प्रत्येक पहलु में सम्पर्क होना परमावश्यक है । वही राष्ट्र उन्नत बन सकता है, जहाँ सहयोग, श्रम, संपत्ति और संगठन का सुन्दर संगम हो । जनता और अधिकारी को वे प्रशासन के दो कलपुर्जे हैं जो एकत्रित आने पर ही सफलता सहज है । अगर जनता और अधिकारीवर्ग में सामंजस्य और सहयोग की भावना नहीं है तो राज्य का दैनंदिन कार्य ही ठप्प हो जाएगा । इस बात का जिक्र करते हुए उन्होंने ३ सितम्बर १९५७ को बम्बई राज्यीय जिल्हाधिकारियों के सम्मेलन में कहा था कि सरकारी अधिकारी - ये जनता के सेवक है; लेकिन वे जनता के बजाय सरकार के प्रति निष्ठावान हैं । अधिकारियों को जनता की सेवा, सरकारी कार्यक्रम के अनुसार करनी पडती है जबकि जनता पर ऐसा कोई बन्धन नहीं होता ।'' सरकारी अधिकारियों को प्रायः ऐसी नीति अंगिकार करनी चाहिए, जिससे वे आसानी से आम-जनता के साथ हिलमिल सके । उन्हें अपने बर्ताव और व्यवहार से यह सिद्ध कर दिखाना चाहिए कि वे भी उनकी सहायता कर सकते हैं । जनता जब निःसंकोच ही किसी अधिकारी के समक्ष अपनी बात रखने में समर्थ बन जाय तब उसे योग्य अधिकारी माना जा सकता है । अधिकारियों को जनसाधारण में यह आस्था निर्माण करनी चाहिए कि सरकार को वे अपनी मानने लगे और अधिकारी-वर्ग से दूर न रह, उनके कार्य में हर तरह की मदद और योग देने के लिए प्रस्तुत हो जाय । इसी बातका प्रतिपादन करते हुए एक बार उन्होंने कहा था कि मुझे न्याय मिलेगा यह भावना मनुष्य के मनमें रूढ करने की जिम्मेदारी सरकार की यानी सरकारी अधिकारियों की है । अधिकारी-वर्ग गलत राह पर जा रहा है या हमें न्याय से वंचित किया जा रहा है यह स्पष्टतौर से कहने का साहस आम-जनता में होना चाहिये और यह साहस अधिकारी-वर्ग को ही अपनी निस्पृहवृत्ति और न्याय-नीति से जनता में पैदा करना चाहिए । किसी भी देश के प्रशासन की कसौटी आम जनता के संतोष, सुख और समृद्धि में निहित है ।

यशवंतराव भारत के सात लाख गाँवों की तरह ही एक सामान्य गाँवमें जन्मे हैं, पले हैं और बडे हुए हैं । इनका शैशव गाँव की गली और मुहल्लों में गुजरा है । वे गाँव की गन्दगी और विषमता के हर पहलु से परिचित हैं । गाँव में व्याप्‍त बेकारी, गरीबी, बुरे रीति-रिवाज और झूठी कल्पनाओं से ग्रस्त इन्सान की टूटती साँस की वेदना से वे भली-भाँति जानकार हैं । और तभी स्वतंत्र भारत की रीढ सम गाँवों की सुन्दर कल्पना वर्षों से अपने मनके किसी कोने में संजोये हुए हैं । उन्होंने 'मेरा कल्पित गाँव' विषय को ले पूना आकाशवाणी केन्द्र से प्रवचन करते हुए कहा था कि मेरा कल्पित गाँव अर्थात् कभी किसी काल में लोग खेती-बाडी करने लगे और उसके इर्द-गिर्द छोटी छोटी झोपडियाँ बना रहने लगे - वह गाँव नहीं; अथवा झरने की मधुर स्वरलहरियों का आनन्दानुभव करता और मृदुकंठिनी श्यामा के मधुरालाप का रसास्वादन करता कुंज-निकुंज में घूम-घूम कर नित नई कल्पनाओं का सर्जक कवि कल्पना करता है ऐसा गाँव नहीं; बल्कि राष्ट्र के जीवन में अपना स्थान स्थिर करनेवाला, सदैव विकास की ओर अभिमुख, एक छोर से दूसरे छोर तक जहां जीवन की धमनियाँ गतिमान हैं और जो अपनी उत्पादनक्षमता से आस-पास के प्रदेश का आकर्षण-केंद्र बन गया है - ऐसा वर्धिष्णु गाँव ही मेरी कल्पना में बसा मनोरम गाँव है ।

जिस गाँव का समाज उत्पादक-भावना लिये एक जगह आया है और जिसकी कार्यक्षमता और उत्पादन-कार्य उक्त गाँवकी सारी आवश्यकताएँ पूरी करने में समर्थ है, ऐसा गाँव ही सुन्दर गाँव कहला सकता है । जिस गाँव का समाज अपनी हर समस्या, अपनेपन और समझौतावादी वृत्ति से हल करने के लिए एकत्रित बैठ कर योग्य निर्णय लेता है - ऐसा पंचायती-जीवन जीनेवाला गाँव....! यह है दूसरा गाँव जिसकी स्पष्ट कल्पना मेरे मानस पर अंकित है !

पारस्परिक वैर-वैमनस्य की भावना की शिकार, गरीबी और कंगालियन से निराश बना, हमारे पर सतत अन्याय हो रहा है ऐसी शंका से ग्रस्त हो, प्रत्येक की ओर देखनेवाला गाँव बसाने की बजाय हमें परस्पर की सौहार्दता और सौजन्यता का प्रतीक हर मुश्किलियों में कंधे से कंधा भिडाकर आँधी-पानी तूफान में जुझ सके ऐसा गाँव बसाना चाहिए ।