भाऊसाहब हिरेने जेधे-मोरेके काँग्रेस संगठनसे चले जानेसे जो हानि हुई थी उसे पूरी करनेकी ऐतिहासिक जिम्मेदारी तो उठा ली । लेकिन वे मानते थे इतनी आसान न थी । जेधे-मोरे काँग्रेस-दलके जब अध्वर्यु माने जाते थे तब आम-जनतामें उनका विरोध करनेवाली कोई तुल्यबल शक्ति न थी । लेकिन भाऊसाहब को आम जनताके रूपमें खडी विरोधी शक्तिका सामना करना था । एक बार जिनके सान्निध्य में रहकर राजनीतिका सबक पढा था उन्हीं से टक्कर लेनी थी । अगर इस संघर्ष में भाऊसाहब बाजी मार जाय तो महाराष्ट्र में काँग्रेसका पलडा भारी होते देर न लगेगी । अतः यशवंतराव, श्री शंकरराव देव, सहजानंद स्वामी, ल. मा. पाटील, आदि नेता-गण भाऊसाहब के पीछे खडे हो गये ।
इसी काल में सन् १९५० में अखिल भारतीय काँग्रेस महासमितिका अधिवेशन नासिक में सम्पन्न हुआ । भाऊसाहब हिरे स्वागताध्यक्ष थे । लेकिन अन्य जिम्मेदारियाँ यशवंतराव के सिर थी, जिसे उन्हों ने बडी ही योग्यतासे निभाया । यशवंतराव की वैचारिक निष्ठा भाऊसाहब से उच्च दर्जे की होगी ? फिर भी उन्होंने भूलकर भी कभी भाऊसाहब के नेतृत्वको चुनौती न दी । आम जनता के हितार्थ और दलनिष्ठा के कारण प्रायः उन्होंने समझौतावादी रूख ही अपनाया है । वे हमेशा ऐसी नीति अंगिकार करते जो भाऊसाहबकी विरोधक सिद्ध न होकर पूरक ही सिद्ध होती । ठीक वैसे ही भाऊसाहब भी यशवंतरावकी मेधावी बुद्धि, संगठन-चातुर्य और स्पष्टवादितादि गुणोंसे भली-भाँति परिचित थे । वे कोई भी कदम उठानेके पहले यशवंतरावसे सलाह-मशविरा अवश्य कर लेते थे । परिणामस्वरूप यशवंतराव भाऊसाहबके नेतृत्वमें कार्य करते थे फिर भी नीति या सिद्धांतोंकी बलिवेदी पर चढनेकी बारी न आवें अतः वे अपनी नीति और विचारोंसे साम्य ऐसे कार्यकर्ताओंका गिरोह बनानेमें अवश्य लगे हुऐ थे । जब कभी भाऊसाहबसे मतभेद होनेका प्रसंग आया तब यशवंतरावने पीछे हट कर लेनेमें ही अपनी दलनिष्ठा समझी । कितने ही अवसरवादियोंने भाऊसाहब और यशवंतरावमें फूट डालनेके प्रयत्न किये, लेकिन यशवंतरावकी मुत्सद्दीगिरीने किसीका दाँव सफल न होने दिया ।
सन १९५२ के आम चुनावमें महाराष्ट्रमें काँग्रेसको विजयी बनानेका महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व भाऊसाहब और यशवंतरावके कंधों पर आया । विरोधी दलोंने काँग्रेसकी नींव खोखली करनेके लिए कमर कस ली थी । अतः ऐसी शक्तियोंको परास्तकर काँग्रेस के सिर पर विजयका सेहरा बाँधना था । हिरे-चव्हाणकी जोडी रणांगणमें उतर पडी । अपने साथी-संगातियोंको साथमें ले, महाराष्ट्रके प्रत्येक गाँवकी खाक छान ली - काँग्रेसका संदेश जन-जनमें पहुँचाया । सरकार द्वारा किये गये जनतोपयोगी कार्योंका सूक्ष्मतासे विवेचन कर किसान और मजदूर वर्गको काँग्रेसका हिमायती बनाया । फलस्वरूप विरोधी-दलोंके पांव ही उखड गये और महाराष्ट्रमें काँग्रेसके झंडे गड गये । और मोरारजी मंत्रीमंडलमें भाऊसाहब तथा यशवंतराव सम्मिलित किये गये ।
संयुक्त महाराष्ट्रके प्रश्न पर यशवंतराव अंत तक भाऊसाहब हिरेका समर्थन करते रहे । लेकिन भाऊसाहब के इर्द-गिर्द जो वर्ग इकट्ठा हो गया था, वह उन्हें सदा गुमराह किया करता था । इसी टोलीने एकबार पूनामें 'यशवंतरावको काँग्रेससे निकाल दो' शब्दोच्चार किया था । इसका कारण यह कि जब तक महाराष्ट्र प्रदेश काँग्रेसमें यशवंतराव हैं तब तक उनकी योजनाएँ कार्यान्वित होना प्रायः असंभव-सा था । और इसी लिए यह सारी धमा चौकडी था । इसी गुटने संयुक्त महाराष्ट्रके प्रश्नको लेकर भाऊसाहबको अलग मार्ग चुननेकी सलाह दी । परिणाम यह आया कि यशवंतरावने जो बात कही, जो योजना उनके सामने रखी उसे सुनने और समझनेकी भाऊसाहबने परवाह ही न की । और इधर मूलभूत नीति एवं सिद्धांतोंका प्रश्न उपस्थित हो जानेके कारण यशवंतराव अपनी नीतिको छोडनेके लिए तैयार न थे । संयुक्त महाराष्ट्रका प्रश्न, राज्य पुनर्गठन आयोगके समक्ष उपस्थित करने तक संयुक्त मोर्चेके साथ काँग्रेसका सहयोग ठीक था । लेकिन जब प्रत्यक्ष कृतिका प्रसंग आया तब महाराष्ट्रके अन्य दलोंके बजाय काँग्रेसकी स्थिति अलग थी । क्यों कि काँग्रेस ही केन्द्र तथा प्रदेशमें शासनारूढ पार्टी थी । अतः काँग्रेस श्रेष्ठिवर्गसे विचार विनिमय, समझौतावादी दृष्टिकोण एवं वार्तालापसे हल करता था जब कि विरोधी दल प्रचंड आन्दोलन, मोर्चे और शक्ति प्रदर्शनके जरिये इसे हल करना चाहता था । इस अवसर पर यशवंतरावका कहना था कि काँग्रेस कार्यकर्ताओंको संयुक्त महाराष्ट्र समितिसे दूर हो जाना चाहिये । लम्बी-चौडी बहसके पश्चात् सभीने त्याग-पत्र देकर संयुक्त महाराष्ट्र समितिसे सम्बंध-विच्छेद करनेका सर्वसम्मतिसे निश्चित किया, पर प्रत्यक्षमें केवल यशवंतरावने ही अकेले त्यागपत्र दिया । दूसरोंने चुप्पी साध ली । इस घटनाके बाद भाऊसाहब और यशवंतरावके मार्ग जुदा हो गये । जिस दलनिष्ठा और जनहितके लिए यशवंतरावको भाऊसाहबका नेतृत्व मान्य करना पडा था उसी जनता और दलके लिए उन्हें भाऊसाहबके नेतृत्वसे अलग होकर उसे तिलांजलि देनी पडी ।