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यशवंतरावजी चव्हाण व्यक्ति और कार्य -२

भारत भूमिमें मराठा प्रदेशके नामसे प्रसिद्ध महाराष्ट्र प्रदेश वीरोंकी भूमि और दक्षिण-भारतका मुकुट-मणि है । इसका नाम लेते ही बरबस हमारा ध्यान सदियों पुराने भारतके इतिहासकी ओर खींच जाता है, जहाँ छत्रपति शिवाजी जैसे नरशार्दूलने जन्म धारण कर हिन्दुपदपादशाहीकी बुझती हुई लौ को अपना जीवन-सर्वस्व अर्पण कर तथा मुगल साम्राज्यके पुष्ट होनेवाले महादानवसे त्रस्त मानवतामें संजीवनी-शक्ति फूँककर प्रज्वलित रखा था; जहाँ के कण-कणमें व्याप्‍त 'ज्ञानोबा-तुकाराम' के भक्ति गीतोंकी सूरावलि आज भी मनुष्य-मात्रको आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करनेका संदेश देती है, जहाँ की हवा श्रीसमर्थ रामदास स्वामीके 'कम्मे शूरा सो धम्मे शूरा' के अगम मंत्रको जन-मानसमें बिखेरती देश-रक्षा, मानव-सेवा और धर्म-परायणताका त्रिवेणी घोष गूंजाती आज भी मन्थर गतिसे बह रही है ।

इसी मर्द-मराठा प्रदेशके सातारा जिलान्तर्गत खानापुर तहसीलका विटा गाँव चव्हाण-परिवारका मूल स्थान । विटा, खानापुर तहसीलकी मुख्य मंडी और कस्बा । फिर भी अमुक सरकारी कर्मचारियोंको छोड दें, तो सारी बस्ती मध्यम वर्गीय समाजकी । लगभग आधी सदीके पहले चव्हाण-परिवारके तत्कालीन मुखिया बलवंतराव इस गाँवमें रहते थे । बलवंतरावकी विटामें थोडी-बहुत अपनी खेती-बाडी थी, जिसे वे खुद ही खेते थे । दूसरे किसानोंकी साझीदारीमें खेती और दूसरा धंधा रोजगार कर भारतके सात लाख गाँवोंमें बिखरे हुए करोडों किसानोंकी तरह अपनी घर-गृहस्थी चलाते थे । खेतीके लिए आवश्यक बैल, गाय, भैंस आदि सभी कुछ उनके पास मौजुद थे, जिसके जरिये बलवंतरावका घर-संसार ठीक ठीक चलता था । फलतः खेती-बाडीके साथ ही बलवंतराव दूध बेचनेका भी धंधा करते थे । इस धंधेसे उन्हें कोई खास आमदनी तो होती न थी, लेकिन परिवारकी छोटी-मोटी जरूरतें अवश्य पूरी हो जाती थीं ।

लेकिन बलवंतरावका लक्ष्य कुछ और ही था । वे खेती-बाडी तथा दूध बेचनेका धंधा करते हुए पेट काटकर जिंदगी बसर करने के बजाय स्थायी नौकरी की तलाशमें थे । कहते हैं भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं । इन्हीं दिनों वे किसी सबजजके यहाँ दूध देनेका काम करते थे । प्राथमिक परिचयके बाद एक बार बलवंतरावने सबजज साहबसे अपनी नौकरीके लिए प्रार्थना की । सबजज साहब दयालु सज्जन थे । उनके मनमें बलवंतरावकी गरीबीके प्रति सहानुभूति पैदा हुई । लेकिन सवाल यह था कि इस अनपढ और गँवार किसानको सरकारी नौकरी दिलवा दी जाए तो कौन सी ? फिर भी उन्होंने अपनी कोर्ट में बलवंतरावको बेलिफके पद पर नियुक्त करवा ही दिया ।

तीन चार वर्ष तक विटा कोर्टमें बेलिफके पद पर काम करनेके पश्चात् बलवंतरावका तबादला कराड कोर्टमें हुआ । चव्हाण-परिवारको विटासे कराड आना पडा । उस समय बलवंतरावके ज्ञानोबा, गणपत, यशवंत तथा राधा ऐसी कुल चार संतानें थीं, जिसमें यशवंतराव बिलकुल नन्हे लगभग एक डेढ साल के थे । उनका जन्म सन् १९१४ के मार्च महीनेकी १२ तारीखको विठाबाईकी कोखसे 'देवराष्ट्र' गाँवमें हुआ था । 'देवराष्ट्र' यशवंतरावके ननिहालका गाँव ! इस तरह बलवंतराव चव्हाणका पाँच-छः जनोंका छोटासा संसार विटासे कराड आकर अभी ठीकसे बस भी न पाया था कि सहसा सन् १९१७-१९ में प्लेगकी महामारी जिलेके एक छोर से दूसरे छोर तक दावानलकी तरह फैल गई । सर्वत्र हाहाकार मच गया । इस आपत्ति से चव्हाण-परिवार भी अछूता न रहा । देखते ही देखते बलवंतरावको इसने ग्रस लिया । बलवंतरावकी अकाल मृत्युसे चव्हाण-परिवार पर मुसीबत और दुःखोंका पहाड टूट पडा । परिवारका आधारस्तंभ ही चला गया । बेचारी अबला नारी और उसके चार नन्हे-मुन्ने दर दर भटकने लगे । गरीबी, घर-गिरस्ती, बच्चोंका लालन-पालन और उदर-निर्वाह विधवा विठाबाईके सामने जटिल समस्या खडी हो गई । लेकिन वह नारी हिम्मत न हारी । उसने मुसीबत और विपत्तियोंसे टक्कर लेनेकी ठानी ।

उस समय बडे पुत्र ज्ञानोबाकी आयु कोई चौदह सालकी, गणपतरावकी दस और यशवंतरावकी सिर्फ पाँच वर्ष की थी । कराडमें बलवंतराव जिन सबजज साबहके मातहत काम करते थे वे बडे सज्जन और दयालु वृत्तिके थे । उनसे चव्हाण-परिवारका दुःख देखा न गया । परिणाम स्वरूप उसे कुछ न कुछ मदद दिलानेका मन ही मन दृढ निश्चयकर उन्होंने सारा वृत्तान्त गोरे न्यायाधीशके कानों पर डालनेका निर्णय किया । तदनुसार उन्होंने मौका देखकर बडी खूबीसे यह बात न्यायाधीश महोदयके समक्ष निवेदित की और वह भी ऐसे प्रभावशाली ढंगसे कि गोरे न्यायपति भी दयार्द्र हो उठे । उनका मन पसीज गया । उन्होंने चव्हाण-परिवारको दिलासा दिया और योग्य सहायता देनेका आश्वासन भी । परिणामतः आठ ही दिनमें कराड कोर्टमें चौदह वर्षीय किशोर ज्ञानोबाकी 'बेलिफ' के पद पर नियुक्ति हो गई ।