अध्ययनशील राजनेता
वैचारिक और दूरदर्शी नेताके रूपमें प्रसिद्ध हुए यशवंतरावके विचार और व्यक्तित्व लोहकवचकी तरह अभेद्य है । एक बार निश्चितकर अंगिकार की हुई भूमिकाको लाख मुसीबतें पडने पर या आपत्तियोंका पहाड टूट जाने पर भी वे नहीं छोडते । बल्कि उसका धैर्यसे सामना करते हैं । संयुक्त महाराष्ट्र निर्मितिके लिए शुरूसे अंत तक वे प्रयत्नशील रहे । उसके लिए आवश्यक सभी प्रामाणिक प्रयत्न किये; लेकिन भारतीय गणतंत्रकी सर्वोच्च सत्ता संसदने जब विशाल द्विभाषिकके पक्षमें अपना फैसला दिया तब गणतंत्रके हितार्थ उन्होंने भारतीय संसदका निर्णय मान्य कर उसे कार्यान्वित करना अपना आद्य कर्तव्य समझा और तदनुसार उसका महाराष्ट्रकी बस्ती, पुरवा, गाँवों, कस्बों और शहरोंमें प्रचारकर सफल बनाने हेतु उन्होंने जो परिश्रम उठाये - उसे देखते हुए हमें निःसंकोच कहना पडेगा कि यशवंतराव यानी विचार, यशवंतराव यानी आचार और यशवंतराव यानी प्रचार अर्थात् आचार-विचार-प्रचार रूपी त्रिवेणी-संगमके दर्शन अकेले यशवंतरावमें ही होते हैं । विशाल द्विभाषिक बम्बईके प्रथम मुख्य-मंत्री चुन लिये जाने पर उत्तर सातारा जिला काँग्रेसने उनका सार्वजनिक अभिनंदन कर 'सुप्रसिद्ध पुरागामी क्रांतिकारी विचार-धाराके नेता' के रूपमें उल्लेख किया । यह उनका वास्तविक गुणगौरव था और भारतीय प्रजातांत्रिक आन्दोलनकी प्रगति और विजय दिन-ब-दिन कैसी होती गई उसका ज्वलंत उदाहरण ! जिसमें एक किसानका बेटा अपनी कर्तव्यनिष्ठा एवं कार्यकुशलतासे भारतके सबसे बडे और समृद्धशाली राज्यका मुख्य मंत्री बन सका ।
यशवंतरावको बचपनसे ही बाह्य-पठनका काफी शौक रहा है । ठीक उसी तरह मनन और जीवनकी सूज्ञ भावसे अनुभूति प्राप्त करनेकी जिज्ञासा भी उनमें बनी रही है । अपने शालेय जीवनमें और कारावासमें उन्हें अधिकाधिक अध्ययन, मनन और पठन करनेका अवसर मिला और परिणाम स्वरूप एक नया दृष्टिकोण भी । जागतिक राज्य-क्रांतियाँ, विविध देशोंके आजादी-जंग, ऐतिहासिक चरित्रमाला, ललित साहित्य आदि विषयोंके अनेकविध ग्रन्थोंको उन्होंने उथल-पुथल दिया हैं । उपरोक्त साहित्य के साथ उनके पढनेमें मार्क्स-तत्त्वज्ञान और साम्यवादी साहित्य भी आया, जिसमें मानव-उन्नतिके करिश्मे बडी ही आकर्षक भाषामें वर्णित किये गये थे और आर्थिक विषमताका ढोल बजाकर हिंसक-आन्दोलन की पृष्ठभूमि तैयार की गई थी । यशवंतराव भी साम्यवादियोंके शाब्दिक-मोहजालसे मुक्त न रह सके । आर्थिक-विषमता के पाशमें फँसा हरकोई सोचे-समझने बिना साम्यवादी-जालमें अटक जाता है । प्रारंभमें यशवंतराव भी खुदको 'कॉमरेड' कहलवाने में गौरव अनुभव करते थे; लेकिन बाह्यरूप से आनेवाला साम्यवादी ज्वार, अनुभवके साथ कम होने लगा । ''रशियन राज्य-क्रांति से निकला थोथा तत्वज्ञान, भारतमें उसी रूपमें कार्यान्वित करनेमें लाभसे अधिक हानि है और उसका सफल होना संभव भी नहीं है । समता जरूर चाहिए, समाजवाद हमारी भलाई करता है; लेकिन वह भारतीय वातावरण के अनुकूल होना चाहिए । उसमें भारतीयत्वकी भावना हो, भारतीय संस्कृतिका विशुद्ध स्वरूप हो । हमें ऐसे समाजवादकी गरज है'' रह रहकर उनके मनमें लगने लगा । फलस्वरूप कॉमरेड के बजाय साथी बननेमें उन्होंने अधिक बुद्धिमानी समझी । वह उनकी विद्यार्थी अवस्था थी । ज्ञानोपासना, साधना और नये दृष्टिकोणसे जगतको देखने की ख्वाहिश थी । बुद्धिमें परिपक्वता न थी । नये नये तत्वज्ञान और विचार-प्रणालियोंका वे नजदीक से अवलोकन कर रहे थे । राजनीतिमें आत्मीयता प्रस्थापित करने के लिए अथवा राजनैतिक-अध्ययनके लिए श्रध्दा का होना जरुरी है । वर्ना राजनीति जैसे शुष्क विषयको आत्मसात् करते हुए एडीका पसीना चोटीको आ जाता है । और अगर कोई माँका लाल कर भी लें तो उसे आशातीत सफलता हर्गिज नहीं मिलती । वैचारिक-शक्तिमें वृद्धि होनेके बजाय वह कुंठित हो जाती है । स्फूर्तिके बिना राजनीति निर्जीव है, ठीक उसी तरह राजनीतिमें अंधश्रध्दा भी पूर्णतया वर्जित है । इससे राजनैतिक विचारोंमें प्रगल्भता आनेके बजाय हमारा छीछला ज्ञान लोगोंकी मजाकका विषय बन जाता है । साथ ही राजनीतिमें प्रायोगिक ज्ञानकी भी अत्यंत आवश्यकता होती है । केवल पुस्तकोंके कीडे बननेसे काम नहीं चलता । बल्कि राजनीतिके मैदानमें उतरे हुए विरोधी दलोंकी तत्वप्रणाली और कार्य करने की पद्धतिका प्रत्यक्ष अनुभव लेना एक सफल राजनीतिज्ञ के लिए सबसे बडी डिग्री है । यशवंतराव के हिस्सेमें जो प्रारब्ध आया वह ऐसा कि राजनैतिक जीवनके प्रारम्भमें ही उन्हें वामपक्षी दलोंकी प्रतीति भली-भाँति हो गई प्रारंभिक संस्कार उनके मन पर अमिट बन गये और फलस्वरूप उन्हें एक स्थिर राजनैतिक दृष्टिकोण प्राप्त हुआ । अतः वे कभी किसी दलके कहर समर्थक न बने । पर देशकी आजादी के लिए अहर्निश आवाज बुलन्द करनेवाली राष्ट्रीय काँग्रेसके प्रति उनके हृदयमें अटूट श्रध्दा और भक्ति थी । अतः जब अवसर मिला तब काँग्रेसके पायिक बनकर प्रायः देशकी स्वतंत्रताके लिए कार्यरत बने रहे ।
सन् १९४२ के काँग्रेस द्वारा संचालित ''करो या मरो'' (Do or die) के आन्दोलनका नेतृत्व स्वीकारकर यशवंतरावने ब्रिटिश सत्ता और देशी नौकरशाहीको लोहेके चने चबवाये । उसमें उन्हें अपना बाह्य-पठन ही काम आया । विविध देशोंके स्वतंत्रता युद्धके सूक्ष्मातिसूक्ष्म तथ्य एकत्रित कर उन्होंने उनका प्रयोग कर भारतीय स्वातंत्र्य युद्ध के भू-गर्भ कार्यक्रमोंको यशस्वी बनाया था । विदेशी साहित्यसे प्राप्त "Guerrilla Warfare" आन्दोलन पद्धतिसे ही उन्होंने महाराष्ट्रमें देशी नौकरशाहीके दांत खट्टे किये थे ।